Wednesday, February 20, 2013


शाकाहार : मानव विकास और सभ्यता का मूल आधार


निरामिष आहार का विकास मानव के विकास, उसकी पूर्णता तथा मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक एकता की दिशा में बढ़ते हुए चरण हैं। सात्विक होने के लिए सदा सात्विक भोजन अपेक्षित है और उसके लिए निरामिष आहार आवश्यक है। मानव व्यक्तित्व से यदि हमें पाशविकता का उन्मूलन करना है तो हमें अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का जीवन लेने का मोह छोड़ना होगा।

निरामिष आहार केवल आहार की ही एक शैली नहीं, वह जीवन की भी शैली है। जिसका आधार है- सभी प्राणियों से प्रेम करना। उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा कोई कष्ट नहीं पहुंचाना। आहार एक साधन है, साध्य नहीं। हमें ऐसे आहार को अपनाना चाहिए जो पोषण के साथ-साथ हमारे परिवेश में एकत्व कर सके। जीवशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है, फिर भी उसमें बुद्धि और हृदयगत सुकोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि उसका पशु स्वभाव संयमित होता गया। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी का वध करने की प्रेरणा नहीं देती।

आहार जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु कैसा भी आहार ग्रहण कर मृत्युंजयी नहीं बन सकते। हममें ऐसे भी कुछ तत्व हैं जो शाश्वत, चिरन्तन और सनातन हैं, जिसे आत्मतत्व कहा गया है। ये आत्मतत्व हमारे आहार पर आधारित नहीं हैं, फिर भी ये हम पर निर्भर हैं कि हम किस प्रकार का आहार करें। यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो हमें यह मानना होगा कि जैसे हमें जीनें का अधिकार है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। ‘तत्वमसि’ एवं ‘अहं ब्रह्मासि’ के सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म एवं जीव की पूर्ण एकता है।

किसी प्राणी का वध वस्तुत: स्वयं का ही वध है। श्रेष्ठजन, मात्र स्वाद के लिए निरीह पशुओं की हिंसा में पाप, अधर्म और उसे बर्बर कृत्य मानते हैं। 

शाकाहार - तर्कसंगत, न्यायसंगत

शाकाहार - कुछ तर्क कुतर्क

शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस और इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है। मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

 अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं - आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है। मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, "क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?" अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे - कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को - अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। फ़िर भी अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो कम से कम उसे धर्म का बहाना तो न दें। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये :-

अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा

धर्म के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेज। हमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि "किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?" हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही "अहिंसा" है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं। अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवीय तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं - शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।
मानव शरीर की संरचना व क्षमता शाकाहार के लिए ही उपयुक्त है

 • दांत-

दांतो की बनावट मांसाहारी जीव से शाकाहारियों में बिलकुल ही अलग है।

माँसाहारी- इनके केनाईन दांतो की बनावट मोटी चमडी में गड़ाकर शिकार को प्राणरहित करने में समर्थ है चिरफाड़ के लिए नुकीले दाँत होते हैं। ये आहार को चबा नहीं सकते उसे टुकड़े टुकडे कर निगलना पडता है। क्योंकि जो चपटे मोलर दाँत चबाने/पिसने के काम आते हैं नहीं होते।

शाकाहारी और मनुष्य- दोनों में तेज नुकीले दाँत नहीं होते जबकि इनमें मोलर दाँत होते हैं। इनके दांत आहार को चबाने में समर्थ होते है जिन दो दांतो को केनाईन कहा जाता है वे माँसाहारी प्रणियों के केनाइन समान नहीं है। जो दो-चार दांत कुछ अर्ध नुकीले पाये भी जाते हैं वह तो मुलायम फल सब्जी काटने के लिये भी जरूरी हैं।

• जबड़ों की क्रिया-

जबड़े की क्रिया भी मांसाहारी जीव से शाकाहारियों में सर्वथा भिन्न हैं |

माँसाहारी- यह अपने जबड़े को मात्र ऊपर – नीचे की दिशा में ही हिला सकते है।

शाकाहारी और मनुष्य- अपने दाँतों के जबड़े को उपर-नीचे, दायें - बाये चला सकते है चबाने,पीसने और एकरस करने के लिए यह आवश्यक भी है।

• पंजे-

भी मांसाहारी जीव से शाकाहारियों में पंजो की संरचना पूर्णतः अलग हैं।

माँसाहारी-इनके पंजे नुकीले व धारदार होते है,शिकारियों की तरह मोटी चमडी चीरने-फाड़ने में समर्थ होते हैं

शाकाहारी और मनुष्य- इनके पंजे नुकीले व धारदार नहीं होते, अधिक से अधिक बल सहने और पकड़ के योग्य होते है।

• आहारनालतंत्र-

आंतो की रचना तो दोनो आहारियों में अपने आहार की पाचन आवश्यक्ता के अनुरूप एकदम विलग है।

माँसाहारी- इनमें Intestinal tract शरीर की लम्बाई के ३ गुनी होती है मांसाहारी जीवों की आंत छोटी और लगभग लम्बवत होती है ताकि पचा हुआ मांस शरीर से जल्द निकल सके।

शाकाहारी और मनुष्य- इनमें Intestinal tract शरीर की लम्बाई के १०-१२ गुनी लम्बी होती है। तत्व शोषण में सहायता के लिए आंत लम्बी व घुमावदार होती है।

• श्वसन प्रक्रिया-

किसी भी शाकाहारी जीव की श्वसन प्रक्रिया मांसाहारी की तुलना में धीमी होती है

माँसाहारी- शेर , कुत्ते , विड़ाल इत्यादि तीव्र और हाँफते हुए सांस लेते है। श्वसन दर १८० से ३०० तक होती है।

शाकाहारी और मनुष्य- मनुष्य सहित गाय , बकरी , हिरन , खरगोश, भैंसे इत्यादि सभी धीमे - धीमे से सांस लेते है। इनकी श्वसन दर ३० - ७० श्वास प्रति मिनट तक होती है।

• जल शोषण-

पानी पीने की प्रकृति उभय आहारियों में सर्वदा भिन्न होती है।

माँसाहारी- मांसाहारी जीव अपनी जीभ से चाट - चाटकर पानी पीता है।

शाकाहारी और मनुष्य- अपने फेफडों से वायुदाब उत्पन्न करते हुए खींच कर पानी पीते हैं।

• चलायमान बल-

शाकाहारी व मांसाहारी के शक्ति उपयोग का तरीका कुदरती अलग है।

माँसाहारी- इनकी शारीरिक क्षमता सिर्फ शिकार करने की ही होती है , जैसे शेर की ताकत मात्र शिकार को दबोचने और गिराने की उसके आगे उससे किसी प्रकार का श्रम संभव नहीं है।

शाकाहारी और मनुष्य- इनका बल लगातार चलायमान होता है , जैसे घोडे , बैल , हाथी , मनुष्य इत्यादि।

• स्वेद ग्रंथि-

माँसाहारी-इनमें स्वेद ग्रंथियाँ /त्वचा में रोम छिद्र नहीं होते इसलिए ये प्राणी जीभ के माध्यम से शरीर का तापमान नियंत्रित करते हैं।

शाकाहारी और मनुष्य-इनके शरीर में रोम छिद्र /स्वेद ग्रंथियां उपस्थित होती हैं और ये पसीने के माध्यम से अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं।

• पाचक रस-

माँसाहारी- इनमें बहुत ही तेज पाचक रस (HCl- हैड्रोक्लोरिक अम्ल ) होता है जो मांस को पचाने में सहायक है।

शाकाहारी और मनुष्य- इनमें यह पाचक रस (हैड्रोक्लोरिक अम्ल) माँसाहारियों से २० गुना कमजोर होता है।

• लार ग्रंथि -

माँसाहारी- इनमें भोजन के पाचन के प्रथम चरण के लिए अथवा भोजन को लपटने के लिए आवश्यक लार ग्रंथियों की आवश्यकता नहीं होती है।

शाकाहारी और मनुष्य- इनमें अनाज व फल के पाचन के प्रथम चरण हेतु मुख में पूर्ण विकसित लार ग्रंथियाँ उपस्थित होती हैं।

• लार-

मांसाहारियों - में अनाज के पाचन के प्रथम चरण में आवश्यक एंजाइम टाइलिन (ptyalin) लार में अनुपस्थित होती है। इनका लार अम्लीय प्रकृति की होती है।

शाकाहारी और मनुष्य- में एंजाइम टाइलिन (ptyalin) लार में उपस्थित होती है व इनका लार क्षारीय प्रकृति की होती है।

यदि अखिल विश्व शाकाहारी हो जाय तो ??

भ्राँतियाँ पैदा करने वाले माँसाहार समर्थक अकसर यह तर्क देते मिलेंगे कि- 'यदि सभी शाकाहारी हो जाय तो सभी के लिए इतना अन्न कहाँ से आएगा?' इस प्रकार भविष्य में खाद्य अभाव का बहाना पैदा कर, वर्तमान में ही सामुहिक पशु-वध और हिंसा को उचित ठहराना तो दिमाग का दिवालियापन है। जबकि सच्चाई तो यह है कि अगर बहुसंख्य भी शाकाहारी हो जाय तो विश्व में अनाज की बहुतायत हो जाएगी।

दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण माँसाहार का बढ़ता प्रचलन है। माँस पाने ले लिए जानवरों का पालन पोषण देखरेख और माँस का प्रसंस्करण करना एक लम्बी व जटिल एवं पृथ्वी-पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली प्रक्रिया है। एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि पर जहाँ 8000 कि ग्रा हरा मटर, 24000 कि ग्रा गाजर और 32000 कि ग्रा टमाटर पैदा किए जा सकतें है वहीं उतनी ही जमीन का उपभोग करके, मात्र 200कि ग्रा. माँस पैदा किया जाता है।

आधुनिक पशुपालन में लाखों पशुओं को पाला-पोषा जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस भी ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है ताकि जल्द से जल्द, ज्यादा से ज्यादा माँस हासिल किया जा सके। औसत उत्पादन का दो-तिहाई अनाज व सोयाबीन पशुओं को खिला दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार दुनिया की माँस खपत में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले 18 हजार बच्चों व 6 हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है।

एक किलो माँस पैदा करने में 7 किलो अनाज या सोयाबीन का उपभोग हो जाता है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में 90 प्रतिशत प्रोटीन, 99 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट और 100 प्रतिशत रेशा नष्ट हो जाता है। एक किलो आलू पैदा करने में जहां मात्र 500 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं इतने ही माँस के लिए 10,000 लीटर पानी व्यय होता है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए अनेकगुना जमीन और संसाधनों का अपव्यय होता है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में झोक दी गई है। यदि माँस उत्पादन में व्यर्थ हो रहे अनाज, जल और भूमि आदि संसाधनो का सदुपयोग किया जाय तो इस एक ही पृथ्वी पर शाकाहार की बहुतायत हो जाएगी।

एक अमेरिकी अनुसंधान से जो आंकडे प्रकाश में आए है उसके अनुसार अमेरिका में औसतन प्रतिव्यक्ति, प्रतिवर्ष अनाज की खपत 1100 किलो है। जबकि भारत में प्रतिव्यक्ति अनाज की खपत मात्र 150 किलो प्रतिवर्ष है जो कि सामान्य है। किन्तु एक अमेरिकन इतनी विशाल मात्रा में अन्न का उपभोग कैसे कर लेता है? वस्तुत: उसका सीधा आहार तो 150 किलो ही है। किन्तु एक अमेरिकन के 1100 किलो अनाज के उपभोग में, सीधे भोज्य अनाज की मात्रा केवल 62 किलो ही होती है, बाकी का 88 किलो हिस्सा माँस होता है। भारत के सम्दर्भ में कहें तो 150 किलो आहार में यह अनुपात 146.6 किलो अनाज और 3.4 किलो माँस होता है।

एक अमेरिकन की औसतन वार्षिक प्रतिव्यक्ति 1100 किलो अनाज की खपत से वह वास्तव में मात्र 62 किलो अनाज का आहार करता है तो बाकि 1038 किलो अनाज कहाँ जाता है? वह 1038 किलो अनाज जाता है मात्र 88 किलो माँस को प्राप्त करनें में । अर्थात् अपनी वार्षिक 1 किलो प्रोटीन की आवश्यकता के लिए एक आम भारतीय अनुमानित 150 किलो अनाज का उपभोग करता है वहीं इसी आवश्यकता को पूरी करने के लिए एक आम अमेरिकन 1100 किलो अनाज को व्यर्थ कर देता है। कोढ में खाज यह कि बेचारे एक निर्दोष जानवर को बिचोलिया बनाकर अपनी मामूली सी प्रोटीन पूर्ती करता है।

एक विशेष तथ्य पर गौर करें। यदि सभी (25 करोड़) अमेरिकन शाकाहारी हो जाय तो मात्र अमेरिका में ही प्रतिव्यक्ति (1100-150= 950) किलो के हिसाब से प्रतिवर्ष 24 करोड़ टन अनाज की बचत हो जाएगी, जो विश्व मे 170 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष भरपेट खिलाने को पर्याप्त होगा। यह आंकडे मात्र अमेरिका के संदर्भ में है। यदि समस्त विश्व के बारे में सोचा जाय तो आंकडे कल्पातीत हो जाएँगे। अगले 100 वर्षों तक विश्व को भूखमरी से निजात दिलायी जा सकती है।

स्पष्ट है कि यदि सभी शाकाहारी हो भी जाय तो निश्चित ही पृथ्वी पर अनाज़ की बहुतायत हो जाएगी। इतनी कि शायद भंडारण के लिए भी हमारे संसाधन कम पड़ जाय।

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