Wednesday, February 20, 2013


शाकाहार क्यों? कुछ विचार

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक जब मानव का विकास हुआ (एक कोशिकीय जीव, बहु कोशिकीय जीव और इसी तरह आगे) तब वह सभ्यता-संस्कृति विहीन जीव था। मतलब अन्य प्राणियों की तरह, उसका एक मात्र ध्येय था अपने जीवन की, अपने प्राण की रक्षा। एक ऐसे प्राणी से, जिसके मस्तिष्क में केवल अपने जीवन-यापन हेतु खाने और रहने की समझ है, क्या अपेक्षा की जा सकती है? स्पष्ट है कि जब मानव प्रागैतिहासिक युग में था तो उसके पास खाने को लेकर सीमित विकल्प थे। कालांतर में जैसे जैसे मानव सभ्यता की तरफ बढा, उसने पत्थर से धातु की तरफ कदम रखा, जब उसने आग की खोज की, पहिये का अविष्कार किया और खेती का, तो फिर उसके तौर तरीके भी बदल गए। जहाँ पहले वह प्रकृति के अन्य जीवों की देखादेखी मांस और प्रकृति दत्त कंद मूल पर निर्भर रहता था, अब वह अन्न उपजाने लगा। मतलब यह कि जैसे जैसे मानवीय सभ्यता आगे की तरफ बढ़ी, शाकाहार का प्रचलन बढ़ने लगा।

शिल्पा मेहता जी ने पिछले आलेख में शाकाहार और मांसाहार से जुड़ी तमाम भ्रांतियों पर ज्ञानवर्धक जानकारी दी है। माँसाहार के समर्थन में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि इन जानवरों को काटा न जाए तो ये पूरी जमीन पर काबिज हों जायेंगे। क्या ऐसा ही कुछ मनुष्यों के बारे में भी कहा जा सकता है? शेर को तो नहीं काटा जाता (यद्यपि शिकार काफी हुआ है) लेकिन फिर भी शेरों की संख्या इतनी नहीं बढ़ गयी कि पूरी पृथ्वी को घेर लेते। भारत के संदर्भ में यही बात मक्खी - मच्छरों के सन्दर्भ में कही जा सकती है। खूब होते हैं लेकिन फिर भी पृथ्वी को इतना न घेर सके कि मानव को रहने के लिए ही जगह न बचे। कुछ दिनों पहले एक चैनल पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिसमें भ्रूण (जानवरों के) को भोजन के बतौर प्रयोग के बारे में दिखाया जा रहा था। एक देश के बारे में समाचारपत्र में पढ़ा था कि वहाँ मानव भ्रूण भी बिकते हैं। क्या माँसाहारी व्यक्ति भी अपने साथ ऐसा व्यवहार  स्वीकार कर सकते हैं? कदापि नहीं।

क्या ऐसा भी हो सकता है कि हम अपने ही किसी अंग का प्रयोग आहार हेतु कर लें? नहीं। आपातकाल में भी व्यक्ति क्षुधा से तड़प कर मर तो जाता है लेकिन अपने किसी अंग का प्रयोग आहार बतौर नहीं करता। क्यों? यहाँ तक कि जो नरभक्षी जातियों के बारे में पढ़ रखा है वह यह कि वे भी बाहरी लोगों को ही अपना शिकार बनाती हैं न कि अपने ही लोगों को। तर्क और कुतर्क के बीच में एक बड़ी मामूली सी रेखा होती है और यह मानना पड़ेगा कि कुतर्क करने वाला व्यक्ति हमेशा अधिक तैयारी से आता है.(गो का अर्थ हमेशा गाय नहीं होता, जैसे कि मन का अर्थ मस्तिष्क, और तोलने की इकाई होता है, कर का अर्थ करना, टैक्स और हाथ भी होता है)। जितना विविधता पूर्ण आहार शाक-सब्जियों से प्राप्त होता है उतना माँस से नहीं। पोषक तत्वों की विविधता के बारे में भी निरामिष के पिछले लेखों में बताया ही जा चुका है और फिर इस सब के बाद भी मांसाहारी व्यक्ति को भी अन्न की भी आवश्यकता पड़ती है और अन्य शाक-सब्जियों की भी।

सबसे बड़ी बात है हिंसा की - हत्या की। जो व्यवहार हम एक निरीह पशु-पक्षी के साथ करते हैं, क्या उस व्यवहार की कल्पना भी हम अपने बारे में, अपने प्रिय जनों के बारे में कर सकते हैं। क्या हम सोच सकते हैं कि हम खुद या फिर हमारा कोई प्रिय जन किसी नरभक्षी के हाथों उस का ग्रास बने। नहीं, ऐसा हम सोचना भी पसंद नहीं करते। फिर। जरूरत है एक सेकेण्ड थॉट की, स्वयं  को दूसरे की जगह रखकर सोचने की।

शाकाहार : स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कुंजी

किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि-  "एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इससे बढ़कर अच्छे स्वास्थ्य की हमें अनुभूति ही नहीं हो पाती.

आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.

आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---यानि मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा:-
सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-
अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere  का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास (अस्थिक्षय):-
अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-
शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-
यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व  उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है. 
(Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heartvalves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु" (Nervous debility):-
माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए  टोलस्टॉय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-

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