Wednesday, February 20, 2013


शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (पूर्वार्ध)

हिंसा की तुलना: माँसाहार बनाम शाकाहार

माँसाहार के कुछ समर्थक, माँसाहार को जबरन योग्य साबित करने के लिये पूछते हैं कि जब वनस्पति में भी जीवन है तो फिर पशु हत्या ही हिंसा क्यों मानी जाती है। ऐसे मांसाहार प्रवर्तक/समर्थक यह दावा करते हैं कि शाक, सब्जी या अन्य शाकाहारी पदार्थों के उत्पादन, तोड़ने तथा सेवन करने पर भी जीव की हिंसा होती है। वे पूछते हैं कि ऐसे में पशु या पक्षियों को मारकर खाने को ही हिंसा व क्रूरता क्यों माना जाता है?

यह कुतर्क प्रस्तुत करते हुए ये तथाकथित विद्वान कभी भी अपना पक्ष स्पष्ट नहीं करते कि शाकाहार और मांसाहार दोनों में हिंसा है तो क्या वे इन दोनो ही का त्याग करने वाले हैं अथवा यह कहना चाहते है कि जब शाकाहारी माँसाहारी दोनो पदार्थों में हिंसा है तो इन दोनों में से जो अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट अत्याचार व आर्तनाद दृष्टिगोचर होता हो, समझते बूझते हुए भी वही हत्या और हिंसा अपना लेनी चाहिए?

क्रूर सच्चाई तो यह है कि माँसाहार समर्थकों का यह तर्क, सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है।

शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को समान ठहराना न केवल अवैज्ञानिक और असत्य है बल्कि अनुचित व अविवेक पूर्ण कृत्य है। एक ओर तो साक्षात जीता जागता प्राणी , अपनी जान बचाने के लिए भागता, संघर्ष करता, बेबसी महसुस करता प्राणी , सहायता के लिए याचना भरी निगाहों से आपकी ओर ताकता आतंकित प्राणी , चोट व घात पर दर्द और पीड़ा से आर्तनाद कर तड़पता, छटपटाता प्राणी और उसे मरते देख रोते –बिलखते अन्य प्राणी? तब भी यदि करूणा नहीं जगती तो निश्चित ही यह मानव मन के निष्ठुर व क्रूर भावों की पराकाष्टा होनी चाहिए।

प्रकृति में दो तरह के जीव है। त्रस और स्थावर। मनुष्य पशु पक्षी मछली आदि स्थूल त्रस जीव है, वे ठंड-गर्मी, भय-त्रास आदि से बचाव के लिए हलन-चलन में सक्षम है। जबकि पेड पौधे बादर स्थावर है उनमें ठंड-गर्मी, भय-त्रास से बचने की चेतना और स्फुरण ही पैदा नहीं होता।

भारतीय वनस्पतिशास्त्री जगदीश चन्द्र बसु के प्रयोगों से पश्चिमी सोच में पहली बार यह प्रस्थापना हुई कि वनस्पति में जीवन है। हालांकि भारतीय मनीषा में यह तथ्य स्थापित था कि वनस्पति में भी जीवन है। परंतु यह जीवन प्राणी-जीवन से सर्वथा भिन्न है। वनस्पति में वह जीवन इस सीमित अर्थ में हैं कि पादप बढते हैं, श्वसन करते हैं, भोजन बनाते हैं और अपने जैसी कृतियों को जन्म देते हैं। स्वयं जगदीश चन्द्र बसु कहते है, - पशु-पक्षी हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद आतंक ग्रस्त होते है। जबकि पेड़-पौधे इस प्रकार आतंक महसूस नहीं करते, क्योंकि उनमें सम्वेदी तंत्रिका-तंत्र का अभाव है।

पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय (अभिनिवेश) भी लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रिय होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, करूण प्रसंग बन उठता है। क्रूर भावों के निस्तार के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है।

आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि सृष्टि में जीवन विकास क्रम, सूक्ष्म एक-कोशिकीय (एकेन्द्रिय) जीव से प्रारंभ होकर पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। पशु-पक्षी आदि पूर्ण विकसित प्राणी है। यदि हमारा जीवन, न्यूनतम हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं बनता, हम विकसित प्राणी की अनावश्यक हिंसा करें। उपभोग संयम का अनुशासन भी नितांत ही आवश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग, दुष्कृत्य के समान है। विकल्प उपलब्ध होते हुए भी जीव विकास क्रम को खण्डित/बाधित करना, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।

पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशु–पक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें  पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।

भोजन के लिए अनाज की प्रायः उपज ली जाती है , फसल काटकर अनाज तब प्राप्त किया जाता है, जब पौधा सूख जाता है। इस उपक्रम में वह अपना जीवन चक्र पूर्ण कर चुका होता है, और स्वयं निर्जीव हो जाता है। ऐसे में उसके साथ हिंसा या अत्याचार जैसे अन्याय का प्रश्न ही नहीं होता, इसलिए सूखे अनाज का आहार सर्वोत्कृष्ट आहार है।

कहते है बीज में नवजीवन पाने की क्षमता होती है, यदि इस कारण से बीज को एकेन्द्रीय जीव मान भी लिया जाय, तब भी वह सुषुप्त अवस्था में होता है। जब तक उस बीज को अनुकूल मिट्टी हवा पानी का संयोग न हो, वह अंकुरित ही नहीं होता। हम जानते है, प्रायः बीज सैकडों वर्ष तक सुरक्षित रह सकते है। ऐसे में शीघ्र सड़न-गलन को प्राप्त होने जैसे मुर्दा लक्षण वाले, अण्डे व मांस, जो अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति के गढ़ समान है। उर्वरशक्ति धारी, एक स्पर्शेन्द्रिय, नवजीवन सम्भाव्य बीज से उनकी कोई तुलना नहीं है।

यदि उत्कृष्ट आहार के बारे में सोचा जाय तो वे फल जो स्वयं पककर पेड़ पर से गिर जाते हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को कोई खतरा नहीं है न ही किसी प्रकार की वेदना की सम्भावना बनती है। साथ ही फल व सब्जियां जिनके उत्पादन के लिए पेड़ पौधे लगाए जाते हें और उनके फल तोड़कर भोजन के काम में लिए जाते हें, इसमें भी कच्चे और अविकसित फलों की अपेक्षा, विकसित परिपक्व फलों के सेवन को उचित मानना चाहिए। इस प्रक्रिया में एक एक वृक्ष अनेकों, सैकड़ों, हजारों या लाखों प्राणियों का पोषण करता है। और काल क्रम से अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वयंमेव मृत्यु को प्राप्त होता है। पेड प्राकृतिक रूप से फल आदि में मधुर स्वादिष्ट गूदा इसीलिए पैदा करते है ताकि उसे खाकर कोई प्राणी, नवपौध रूपी बीज को अन्यत्र प्रसार प्रदान करे। विवेकवान को ऐसे बीज उपजाऊ धरती को सुरक्षित अर्पण करने ही चाहिए। यह उत्कृष्ट सदाचार है।

यदि करुणा का विस्तार करना है तो शस्य कहे जाने वाले वनस्पति में भी कन्द मूल के भोजन से बचा जा सकता है क्योंकि उनके लिये पौधे को जड़ सहित उखाड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे का जीवन समाप्त होता है फिर भी इस श्रेणी के शाकाहार में कम से कम चर जीवों की घात तो नहीं होती। इस कारण यह मांसाहार की अपेक्षा श्रेयस्कर ही है। इसकी तुलना किसी भी तरह से मांसाहार से नहीं की जा सकती है, क्योंकि मांस में प्रतिपल अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है माँस में मात्र उस एक प्राणी की ही हिंसा नहीं है वरन् मांस पर आश्रित अनेकों जीवों की भी हिंसा व्याप्त होती है।

अतः हिंसा और अहिंसा के चिंतन को सूक्ष्म-स्थूल, संकल्प-विकल्प, सापराध-निरपराध, सापेक्ष-निरपेक्ष, सार्थक -निरर्थक के समग्र सम्यक् दृष्टिकोण से विवेचित किया जाना चाहिए। साथ ही उस हिंसा के परिणामों पर पूर्व में ही विचार किया जाना चाहिए।

निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।

सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही तो हमारे मानवीय जीवन मूल्य है। हिंसकभाव से भी विरत रहना अहिंसा पालन है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना, अहिंसक वृति की साधना है।

पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किंघली के यह शब्द बहुत कुछ कह जाते है, "यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिंसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है।"

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