Wednesday, February 20, 2013


शाकाहार क्यों? कुछ विचार

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक जब मानव का विकास हुआ (एक कोशिकीय जीव, बहु कोशिकीय जीव और इसी तरह आगे) तब वह सभ्यता-संस्कृति विहीन जीव था। मतलब अन्य प्राणियों की तरह, उसका एक मात्र ध्येय था अपने जीवन की, अपने प्राण की रक्षा। एक ऐसे प्राणी से, जिसके मस्तिष्क में केवल अपने जीवन-यापन हेतु खाने और रहने की समझ है, क्या अपेक्षा की जा सकती है? स्पष्ट है कि जब मानव प्रागैतिहासिक युग में था तो उसके पास खाने को लेकर सीमित विकल्प थे। कालांतर में जैसे जैसे मानव सभ्यता की तरफ बढा, उसने पत्थर से धातु की तरफ कदम रखा, जब उसने आग की खोज की, पहिये का अविष्कार किया और खेती का, तो फिर उसके तौर तरीके भी बदल गए। जहाँ पहले वह प्रकृति के अन्य जीवों की देखादेखी मांस और प्रकृति दत्त कंद मूल पर निर्भर रहता था, अब वह अन्न उपजाने लगा। मतलब यह कि जैसे जैसे मानवीय सभ्यता आगे की तरफ बढ़ी, शाकाहार का प्रचलन बढ़ने लगा।

शिल्पा मेहता जी ने पिछले आलेख में शाकाहार और मांसाहार से जुड़ी तमाम भ्रांतियों पर ज्ञानवर्धक जानकारी दी है। माँसाहार के समर्थन में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि इन जानवरों को काटा न जाए तो ये पूरी जमीन पर काबिज हों जायेंगे। क्या ऐसा ही कुछ मनुष्यों के बारे में भी कहा जा सकता है? शेर को तो नहीं काटा जाता (यद्यपि शिकार काफी हुआ है) लेकिन फिर भी शेरों की संख्या इतनी नहीं बढ़ गयी कि पूरी पृथ्वी को घेर लेते। भारत के संदर्भ में यही बात मक्खी - मच्छरों के सन्दर्भ में कही जा सकती है। खूब होते हैं लेकिन फिर भी पृथ्वी को इतना न घेर सके कि मानव को रहने के लिए ही जगह न बचे। कुछ दिनों पहले एक चैनल पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिसमें भ्रूण (जानवरों के) को भोजन के बतौर प्रयोग के बारे में दिखाया जा रहा था। एक देश के बारे में समाचारपत्र में पढ़ा था कि वहाँ मानव भ्रूण भी बिकते हैं। क्या माँसाहारी व्यक्ति भी अपने साथ ऐसा व्यवहार  स्वीकार कर सकते हैं? कदापि नहीं।

क्या ऐसा भी हो सकता है कि हम अपने ही किसी अंग का प्रयोग आहार हेतु कर लें? नहीं। आपातकाल में भी व्यक्ति क्षुधा से तड़प कर मर तो जाता है लेकिन अपने किसी अंग का प्रयोग आहार बतौर नहीं करता। क्यों? यहाँ तक कि जो नरभक्षी जातियों के बारे में पढ़ रखा है वह यह कि वे भी बाहरी लोगों को ही अपना शिकार बनाती हैं न कि अपने ही लोगों को। तर्क और कुतर्क के बीच में एक बड़ी मामूली सी रेखा होती है और यह मानना पड़ेगा कि कुतर्क करने वाला व्यक्ति हमेशा अधिक तैयारी से आता है.(गो का अर्थ हमेशा गाय नहीं होता, जैसे कि मन का अर्थ मस्तिष्क, और तोलने की इकाई होता है, कर का अर्थ करना, टैक्स और हाथ भी होता है)। जितना विविधता पूर्ण आहार शाक-सब्जियों से प्राप्त होता है उतना माँस से नहीं। पोषक तत्वों की विविधता के बारे में भी निरामिष के पिछले लेखों में बताया ही जा चुका है और फिर इस सब के बाद भी मांसाहारी व्यक्ति को भी अन्न की भी आवश्यकता पड़ती है और अन्य शाक-सब्जियों की भी।

सबसे बड़ी बात है हिंसा की - हत्या की। जो व्यवहार हम एक निरीह पशु-पक्षी के साथ करते हैं, क्या उस व्यवहार की कल्पना भी हम अपने बारे में, अपने प्रिय जनों के बारे में कर सकते हैं। क्या हम सोच सकते हैं कि हम खुद या फिर हमारा कोई प्रिय जन किसी नरभक्षी के हाथों उस का ग्रास बने। नहीं, ऐसा हम सोचना भी पसंद नहीं करते। फिर। जरूरत है एक सेकेण्ड थॉट की, स्वयं  को दूसरे की जगह रखकर सोचने की।

शाकाहार : स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कुंजी

किसी पश्चिमी विद्वान नें शान्ती की परिभाषा करते हुए लिखा है, कि-  "एक युद्ध की सामप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी---इन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं". आज हकीकत में हमारे स्वास्थय का भी कुछ ऎसा ही हाल है. "जहाँ एक बीमारी को दबा दिया गया हो और द्सरी होने की तैयारी में हो, उस बीच के अन्तराल को हम कहते हैं---स्वास्थ्य". क्योंकि इससे बढ़कर अच्छे स्वास्थ्य की हमें अनुभूति ही नहीं हो पाती.

आज समूची दुनिया एक विचित्र रूग्ण मनोदशा से गुजर रही है. उस रूग्ण मनोदशा से छुटकारा दिलाने के लिए लाखों-करोडों डाक्टर्स के साथ साथ वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में दिन-रात जुटे हैं. नित्य नई नईं दवाओं का आविष्कार किया जा रहा है लेकिन फिर भी सम्पूर्ण मानवजाति अशान्त है, अस्वस्थ है, तनावग्रस्त है और न जाने कैसी विचित्र सी बेचैनी का जीवन व्यतीत कर रही है. जितनी दवायें खोजी जा रही हैं, उससे कहीं अधिक दुनिया में मरीज और नईं-नईं बीमारियाँ बढती चली जा रही हैं. इसका एकमात्र कारण यही है कि डाक्टर्स, वैज्ञानिक केवल शरीर का इलाज करने में लगे हैं, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस पर विचार किया जाये कि इन्द्रियों और मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाये. कितना हास्यस्पद है कि 'स्वस्थ इन्द्रियाँ' और 'स्वस्थ मन' कैप्स्यूल्स, गोलियों, इन्जैक्शन और सीलबन्द प्रोटीन-विटामिन्स के डिब्बों में बेचने का निहायत ही मूर्खतापूर्ण एवं असफल प्रयास किया जा रहा है.
दरअसल पेट को दवाखाना बनने से रोकने और उत्तम स्वास्थ्य का केवल एक ही मार्ग है-----इन्द्रियाँ एवं मन की स्वस्थ्यता और जिसका मुख्य आधार है------आहार शुद्धि. आहार शुद्धि के अभाव में आज का मानव मरता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे अपनी स्वयं की हत्या करता है. हम अपने दैनिक जीवन में शरीर का ध्यान नहीं रखते,खानपान का ध्यान नहीं रखते. परिणामत: अकाल में ही काल कलवित हुए जा रहे हैं.

आईये इस आहार शुद्धि के चिन्तन के समय इस बात पर विचार करें कि माँसाहार इन्सान के लिए कहाँ तक उचित है. अभी यहाँ हम स्वास्थ्य चिकित्सा के दृ्ष्टिकोण से इस विषय को रख रहे हैं. आगामी पोस्टस में वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक इत्यादि अन्य विभिन्न दृष्टिकोण से हम इन बिन्दुओं पर विचार करेगें.....
स्वास्थ्य चिकित्सा एवं शारीरिक दृष्टि से विचार करें तो माँसाहार साक्षात नाना प्रकार की बीमारियों की खान है:-
1. यूरिक एसिड से यन्त्रणा---यानि मृत्यु से गुप्त मन्त्रणा:-
सबको पता है कि माँस खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ जाती है. ओर ये बढा हुआ यूरिक एसिड इन्सान को होने वाली अनेक बीमारियों जैसे दिल की बीमारी, गठिया, माईग्रेन, टी.बी और जिगर की खराबी इत्यादि की उत्पत्ति का कारण है. यूरिक एसिड की वृद्धि के कारण शरीर के अवयव Irritable, Painful & Inflamed हो जाते हैं, जिससे अनेक रोग जन्म लेते हैं.
2. अपेडीसाइटीज को निमन्त्रण:-
अपेन्डीसाइटीज माँसाहारी व्यक्तियों में अधिक होता है. फ्रान्स के डा. Lucos Champoniere  का कहना है कि शाकाहारियों मे अपेन्डासाइटीज नहीं के बराबर होती है. " Appendicites is practically unknown among Vegetarians."
3. हड्डियों में ह्रास (अस्थिक्षय):-
अमेरिका में हावर्ड मेडिकल स्कूल, अमेरिका के डा. ए. वाचमैन और डा. डी.ए.वर्नलस्ट लैसेंट द्वारा प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि मासाँहारी लोगोम का पेशाब प्राय: तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते हैं और इसके विपरीत शाकाहारियों के पेशाब में क्षार की मात्रा अधिक होती है, इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं जाता और हड्डियों की मजबूती बरकरार रहती है. उनकी राय में जिन व्यक्तियों की हड्डियाँ कमजोर हों, उनको विशेष तौर पर अधिक फल, सब्जियों के प्रोटीन और दूध का सेवन करना चाहिए और माँसाहार का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए.
4. माँस-मादक(उत्तेजक): शाकाहार शक्तिवर्द्धक:-
शाकाहार से शक्ति उत्पन होती है और माँसाहार से उत्तेजना. डा. हेग नें शक्तिवर्द्धक और उत्तेजक पदार्थों में भेद किया है. उत्तेजना एक वस्तु है और शक्ति दूसरी. माँसाहारी पहले तो उत्तेजनावश शक्ति का अनुभव करता है किन्तु शीघ्र थक जाता है, जबकि शाकाहार से उत्पन्न शक्ति शरीर द्वारा धैर्यपूर्वक प्रयोग में लाई जाती है. शरीर की वास्तविक शक्ति को आयुर्वेद में 'ओज' के नाम से जाना जाता है और दूध, दही एवं घी इत्यादि में ओज का स्फुरण होता है, जबकि माँसाहार से विशेष ओज प्रकट नहीं होता.
5. दिल का दर्दनाक दौरा:-
यों तो ह्रदय रोग के अनेक कारण है. लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनमें से माँसाहार और धूम्रपान दो बडे कारणों में से हैं. वस्तुत: माँसाहारी भोजन में कोलोस्ट्रोल नामक् चर्बी तत्व होता है, जो कि रक्त वाहिनी नलिकाओं के लचीलेपन को घटा देता है. बहुत से मरीजों में यह तत्व  उच्च रक्तचाप के लिए भी उत्तरदायी होता है. कोलोस्ट्राल के अतिरिक्त यूरिक एसिड की अधिकता से व्यक्ति "रियूमेटिक" का शिकार हो जाता है. ऎसी स्थिति में आने वाला दिल का दौरा पूर्णत: प्राणघातक सिद्ध होता है. 
(Rheumatic causes inflammation of tissues and organs and can result in serious damage to the heartvalves, joints, central nervous system)
माँस-मद्य-मैथुन----मित्रत्रय से "दुर्बल स्नायु" (Nervous debility):-
माँस एक ऎसा उत्तेजक अखाद्य पदार्थ है, जो कि इन्सान में तामसिक वृति की वृद्धि करता है. इसलिए अधिकांशत: देखने में आता है कि माँस खाने वाले व्यक्ति को शराब का चस्का भी देर सवेर लगने लग ही जाता है, जबकि शाकाहारियों को साधारणतय: शराब पीना संभव नहीं. एक तो माँस उत्तेजक ऊपर से शराब. नतीजा यह होता है कि माँस और मद्य के सेवन से मनुष्य के स्नायु इतने दुर्बल हो जाते हैं कि मनुष्य के जीवन में निराशा भावना तक भर जाती है. फिर एक बात ओर---माँस और मद्य की उत्तेजना से मैथुन(सैक्स) की प्रवृति का बढना निश्चित है. परिणाम सब आपके सामने है. इन्सान का वात-संस्थान (Nerve System ) बिगड जाता है और निराशा दबा लेती है. धर्मशास्त्रों के वचन पर मोहर लगाते हुए  टोलस्टॉय के शब्दों मे विज्ञान का भी कुछ ऎसा ही कहना है-

शाकाहार में भी हिंसा? एक बड़ा सवाल!! (पूर्वार्ध)

हिंसा की तुलना: माँसाहार बनाम शाकाहार

माँसाहार के कुछ समर्थक, माँसाहार को जबरन योग्य साबित करने के लिये पूछते हैं कि जब वनस्पति में भी जीवन है तो फिर पशु हत्या ही हिंसा क्यों मानी जाती है। ऐसे मांसाहार प्रवर्तक/समर्थक यह दावा करते हैं कि शाक, सब्जी या अन्य शाकाहारी पदार्थों के उत्पादन, तोड़ने तथा सेवन करने पर भी जीव की हिंसा होती है। वे पूछते हैं कि ऐसे में पशु या पक्षियों को मारकर खाने को ही हिंसा व क्रूरता क्यों माना जाता है?

यह कुतर्क प्रस्तुत करते हुए ये तथाकथित विद्वान कभी भी अपना पक्ष स्पष्ट नहीं करते कि शाकाहार और मांसाहार दोनों में हिंसा है तो क्या वे इन दोनो ही का त्याग करने वाले हैं अथवा यह कहना चाहते है कि जब शाकाहारी माँसाहारी दोनो पदार्थों में हिंसा है तो इन दोनों में से जो अधिक क्रूर व वीभत्स हत्या हो, जहां स्पष्ट अत्याचार व आर्तनाद दृष्टिगोचर होता हो, समझते बूझते हुए भी वही हत्या और हिंसा अपना लेनी चाहिए?

क्रूर सच्चाई तो यह है कि माँसाहार समर्थकों का यह तर्क, सूक्ष्म और वनस्पति जीवन के प्रति करुणा से नहीं उपजा है। बल्कि यह क्रूरतम पशु हिंसा को सामान्य बताकर महिमामण्डित करने की दुर्भावना से उपजा है।

शाकाहार की तुलना मांसाहार से करना और दोनों को समान ठहराना न केवल अवैज्ञानिक और असत्य है बल्कि अनुचित व अविवेक पूर्ण कृत्य है। एक ओर तो साक्षात जीता जागता प्राणी , अपनी जान बचाने के लिए भागता, संघर्ष करता, बेबसी महसुस करता प्राणी , सहायता के लिए याचना भरी निगाहों से आपकी ओर ताकता आतंकित प्राणी , चोट व घात पर दर्द और पीड़ा से आर्तनाद कर तड़पता, छटपटाता प्राणी और उसे मरते देख रोते –बिलखते अन्य प्राणी? तब भी यदि करूणा नहीं जगती तो निश्चित ही यह मानव मन के निष्ठुर व क्रूर भावों की पराकाष्टा होनी चाहिए।

प्रकृति में दो तरह के जीव है। त्रस और स्थावर। मनुष्य पशु पक्षी मछली आदि स्थूल त्रस जीव है, वे ठंड-गर्मी, भय-त्रास आदि से बचाव के लिए हलन-चलन में सक्षम है। जबकि पेड पौधे बादर स्थावर है उनमें ठंड-गर्मी, भय-त्रास से बचने की चेतना और स्फुरण ही पैदा नहीं होता।

भारतीय वनस्पतिशास्त्री जगदीश चन्द्र बसु के प्रयोगों से पश्चिमी सोच में पहली बार यह प्रस्थापना हुई कि वनस्पति में जीवन है। हालांकि भारतीय मनीषा में यह तथ्य स्थापित था कि वनस्पति में भी जीवन है। परंतु यह जीवन प्राणी-जीवन से सर्वथा भिन्न है। वनस्पति में वह जीवन इस सीमित अर्थ में हैं कि पादप बढते हैं, श्वसन करते हैं, भोजन बनाते हैं और अपने जैसी कृतियों को जन्म देते हैं। स्वयं जगदीश चन्द्र बसु कहते है, - पशु-पक्षी हत्या के समय मरणांतक पीड़ा महसुस करते है, और बेहद आतंक ग्रस्त होते है। जबकि पेड़-पौधे इस प्रकार आतंक महसूस नहीं करते, क्योंकि उनमें सम्वेदी तंत्रिका-तंत्र का अभाव है।

पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय (अभिनिवेश) भी लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रिय होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, करूण प्रसंग बन उठता है। क्रूर भावों के निस्तार के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है।

आहार का चुनाव करते समय हमें अपने विवेक को वैज्ञानिक अभिगम देना होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि सृष्टि में जीवन विकास क्रम, सूक्ष्म एक-कोशिकीय (एकेन्द्रिय) जीव से प्रारंभ होकर पंचेंद्रिय तक पहुँचा है। पशु-पक्षी आदि पूर्ण विकसित प्राणी है। यदि हमारा जीवन, न्यूनतम हिंसा से चल सकता है तो हमें कोई अधिकार नहीं बनता, हम विकसित प्राणी की अनावश्यक हिंसा करें। उपभोग संयम का अनुशासन भी नितांत ही आवश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग, दुष्कृत्य के समान है। विकल्प उपलब्ध होते हुए भी जीव विकास क्रम को खण्डित/बाधित करना, प्रकृति के साथ जघन्य अपराध है।

पेड-पौधों से फल पक कर स्वतः ही अलग होकर गिर पडते है। वृक्षों की टहनियां पत्ते आदि कटने पर पुनः उग आते है। कईं पौधों की कलमें लगाई जा सकती है। एक जगह से पूरा वृक्ष ही उखाड़ कर पुनः रोपा जा सकता है। किन्तु पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनका कोई भी अंग भंग कर दिया जाय तो वे सदैव के लिए विकलांग, मरणासन्न या मर भी जाते हैं। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है और स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये प्रकृति या दूसरे जीवों पर आश्रित रहना पड़ता है। पेड-पौधो के किसी भी अंग को विलग किया जाय तो वह पुनः पनप जाता है। एक नया अंग विकसित हो जाता है। यहां तक कि पतझड में उजड कर ठूँठ बना वृक्ष फिर से हरा-भरा हो जाता है। उनके अंग नैसर्गिक/स्वाभाविक रूप से पुनर्विकास में सक्षम होते है। वनस्पति के विपरीत पशुओं में कोई ऐसा अंग नही है जो उसे पुनः समर्थ बना सके, जैसे आंख चली जाय तो पुनः नहीं आती वह देख नहीं सकता, कान नाक या मुंह चला जाय तो वह अपना भोजन प्राप्त नहीं कर सकता। पर पेड की कोई शाखा टहनी अलग भी हो जाय पुनः विकसित हो जाती है। वृक्ष को इससे अंतर नहीं पड़ता और न उन्हें पीड़ा होती है। इसीलिए कहा गया है कि पशु–पक्षियों का जीवन अमूल्य है, वह इसी अर्थ में कि मनुष्य इन्हें  पौधों की भांति धरती से उत्पन्न नहीं कर सकता।

भोजन के लिए अनाज की प्रायः उपज ली जाती है , फसल काटकर अनाज तब प्राप्त किया जाता है, जब पौधा सूख जाता है। इस उपक्रम में वह अपना जीवन चक्र पूर्ण कर चुका होता है, और स्वयं निर्जीव हो जाता है। ऐसे में उसके साथ हिंसा या अत्याचार जैसे अन्याय का प्रश्न ही नहीं होता, इसलिए सूखे अनाज का आहार सर्वोत्कृष्ट आहार है।

कहते है बीज में नवजीवन पाने की क्षमता होती है, यदि इस कारण से बीज को एकेन्द्रीय जीव मान भी लिया जाय, तब भी वह सुषुप्त अवस्था में होता है। जब तक उस बीज को अनुकूल मिट्टी हवा पानी का संयोग न हो, वह अंकुरित ही नहीं होता। हम जानते है, प्रायः बीज सैकडों वर्ष तक सुरक्षित रह सकते है। ऐसे में शीघ्र सड़न-गलन को प्राप्त होने जैसे मुर्दा लक्षण वाले, अण्डे व मांस, जो अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं की उत्पत्ति के गढ़ समान है। उर्वरशक्ति धारी, एक स्पर्शेन्द्रिय, नवजीवन सम्भाव्य बीज से उनकी कोई तुलना नहीं है।

यदि उत्कृष्ट आहार के बारे में सोचा जाय तो वे फल जो स्वयं पककर पेड़ पर से गिर जाते हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में पेड़ के जीवन को कोई खतरा नहीं है न ही किसी प्रकार की वेदना की सम्भावना बनती है। साथ ही फल व सब्जियां जिनके उत्पादन के लिए पेड़ पौधे लगाए जाते हें और उनके फल तोड़कर भोजन के काम में लिए जाते हें, इसमें भी कच्चे और अविकसित फलों की अपेक्षा, विकसित परिपक्व फलों के सेवन को उचित मानना चाहिए। इस प्रक्रिया में एक एक वृक्ष अनेकों, सैकड़ों, हजारों या लाखों प्राणियों का पोषण करता है। और काल क्रम से अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वयंमेव मृत्यु को प्राप्त होता है। पेड प्राकृतिक रूप से फल आदि में मधुर स्वादिष्ट गूदा इसीलिए पैदा करते है ताकि उसे खाकर कोई प्राणी, नवपौध रूपी बीज को अन्यत्र प्रसार प्रदान करे। विवेकवान को ऐसे बीज उपजाऊ धरती को सुरक्षित अर्पण करने ही चाहिए। यह उत्कृष्ट सदाचार है।

यदि करुणा का विस्तार करना है तो शस्य कहे जाने वाले वनस्पति में भी कन्द मूल के भोजन से बचा जा सकता है क्योंकि उनके लिये पौधे को जड़ सहित उखाड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे का जीवन समाप्त होता है फिर भी इस श्रेणी के शाकाहार में कम से कम चर जीवों की घात तो नहीं होती। इस कारण यह मांसाहार की अपेक्षा श्रेयस्कर ही है। इसकी तुलना किसी भी तरह से मांसाहार से नहीं की जा सकती है, क्योंकि मांस में प्रतिपल अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है माँस में मात्र उस एक प्राणी की ही हिंसा नहीं है वरन् मांस पर आश्रित अनेकों जीवों की भी हिंसा व्याप्त होती है।

अतः हिंसा और अहिंसा के चिंतन को सूक्ष्म-स्थूल, संकल्प-विकल्प, सापराध-निरपराध, सापेक्ष-निरपेक्ष, सार्थक -निरर्थक के समग्र सम्यक् दृष्टिकोण से विवेचित किया जाना चाहिए। साथ ही उस हिंसा के परिणामों पर पूर्व में ही विचार किया जाना चाहिए।

निर्ममता के विपरीत दयालुता, क्रूरता के विपरित करूणा, निष्ठुरता के विपरीत संवेदनशीलता, दूसरे को कष्ट देने के विपरीत जीने का अधिकार देने के सदाचार का नाम शाकाहार है। इसीलिए शाकाहार सभ्य खाद्याचार है।

सूक्ष्म हिंसा अपरिहार्य हो, फिर भी द्वेष व क्रूर भावों से बचे रहना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । यही अहिंसक मनोवृति है। न्यून से न्यूनतम हिंसा का विवेक रखना ही तो हमारे मानवीय जीवन मूल्य है। हिंसकभाव से भी विरत रहना अहिंसा पालन है। बुद्धि, विवेक और सजगता से अपनी आवश्यकताओं को संयत व सीमित रखना, अहिंसक वृति की साधना है।

पश्चिमी विद्वान मोरिस सी. किंघली के यह शब्द बहुत कुछ कह जाते है, "यदि पृथ्वी पर स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित करना है तो पहले कदम के रूप में माँस भोजन को सर्वथा वर्जनीय करना होगा, क्योंकि माँसाहार अहिंसक समाज की रचना में सबसे बडी बाधा है।"

हमारे खान-पान का हमारी संवेदना पर असर होता है

क्या किसी सार्वजनिक यज्ञ में भागीदारों की मनोवृत्ति का यज्ञ के परिणामों पर प्रभाव पड़ता है? यहाँ यज्ञ से मेरा तात्पर्य 'कार्यक्रम' [प्रोग्राम] से है. 

एक सामाजिक संस्था ने पूंजीवादी मानसिकता से शोषित एक बस्ती में 'भय-उन्मूलन' कार्यक्रम किया. बहुत लोग सम्मिलित हुए अर्थात शाकाहारी, मांसाहारी, अल्पाहारी, अत्याहारी, वृतधारी, योगी, भोगी, खाऊ, पेटू, आदि सभी तरह के लोग थे. 

— क्या भरे पेट वाले और और खाली पेट वाले 'भूख' के प्रति एक समान भाव धारण कर सकते हैं? 
— कार्यक्रम के मूल-उद्देश्य के प्रति क्या शाकारियों और मांसाहारियों की संवेदना एक-सी होगी?  
— व्रतधारी, योगी और भोगी व्यक्तियों का प्रयास पूरी ईमानदारी से एक-सा कहा जा सकता है? 
— क्या बस्ती के लोगों के मन में संस्था के प्रत्येक सदस्य के प्रति अलग-अलग भाव बनेंगे? 

.......... मैंने भी देखा है कि एक ही संस्था में दो तरह के व्यक्ति होते हैं. एक अपने स्वभाव से संस्था की छवि बेहतर बनाते हैं  और दूसरे अपने स्वभाव से संस्था के प्रति खिन्नता के भाव जागृत करते हैं.
कार्यक्रम कोई भी हो... चाहे 'मौलिक अधिकारों के लिए जन-जागृति का हो' अथवा 'राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति सजग करने का' उसमें जब तक कार्यकर्ताओं का आहार शुद्ध नहीं होगा तब तक उनके विचार जन-कल्याण के कार्यक्रमों के प्रति गंभीर नहीं होंगे. 

— क्या दिनभर हँसाने वाला जोकर [कोमेडियन] दूसरे की पीड़ा के भाव को पूरी गंभीरता से आत्मसात कर सकता है? 
— क्या कोई 'कसाई' समाज में हुए किसी के क़त्ल पर उतनी संवेदना से जुड़ सकता है जितनी संवेदना से कोई 'पानवाला'?
— क्या चिड़ियों को पिजरों में पालने का शौक़ीन स्वतंत्रता की सही-सही व्याख्या कर सकता है? 

प्रश्न इस तरह के अनेक हो सकते हैं... मुख्य बात है कि हमारे आहार-विहार से ही हमारा स्वभाव बनता है और हमारे तरह-तरह के शौकों का निर्माण होता है. 

भ्रांति मिटाने के नाम पर मांसाहार प्रचार का भ्रमजाल

सलीम खान ने कभी अपने ब्लॉग पर यह '14 बिन्दु' मांसाहार के पक्ष में प्रस्तुत किये थे। असल में यह सभी कुतर्क ज़ाकिर नाईक के है, जो यहां वहां प्रचार माध्यमों से फैलाए जाते है। वैसे तो इन फालतू कुतर्को पर प्रतिक्रिया टाली भी जा सकती थी, किन्तु  इन्टरनेट जानकारियों का स्थायी स्रोत है यहाँ ऐसे भ्रामक कुतर्क अपना भ्रमजाल फैलाएँगे तो लोगों में संशय और भ्रम स्थापित होंगे। ये कुतर्क यदि निरूत्तर रहे तो भ्रम, सच की तरह रूढ़ हो जाएंगे, इसलिए जालस्थानों में इन कुतर्कों का यथार्थ और तथ्ययुक्त खण्ड़न  उपलब्ध होना नितांत ही आवश्यक है।

मांसाहार पर यह प्रत्युत्तर-खण्ड़न, धर्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि अहिंसा और करूणा के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किए जा रहे है। मांसाहार को भले ही कोई अपने धर्म का पर्याय या प्रतीक मानता हो, जीव-हत्या किसी भी धर्म का उपदेश या सिद्धांत नहीं हो सकता। इसलिए यह खण्ड़न अगर निंदा है तो स्पष्ट रूप से यह हिंसा, क्रूरता और निर्दयता की निंदा है। गोश्तखोरी प्रायोजित हिंसा सदैव और सर्वत्र निंदनीय ही होनी चाहिए, क्योंकि इस विकार से बनती हिंसक मनोवृति समाज के शान्त व संतुष्ट जीवन ध्येय में मुख्य बाधक है।

निश्चित ही शारीरिक उर्जा पूर्ति के लिए भोजन करना आवश्यक है। किन्तु सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते, मानव इस जगत का मुखिया है। अतः प्रत्येक जीवन के प्रति, उत्तरदायित्व पूर्वक सोचना भी मानव का कर्तव्य है। सृष्टि के सभी प्राणभूत के अस्तित्व और संरक्षण के लिए सजग रहना, मानव की जिम्मेदारी है। ऐसे में आहार से उर्जा पूर्ति का निर्वाह करते हुए भी, उसका भोजन कुछ ऐसा हो कि आहार-इच्छा से लेकर, आहार-ग्रहण करने तक वह संयम और मितव्ययता से काम ले। उसका यह ध्येय होना चाहिए कि सृष्टि की जीवराशी  कम से कम खर्च हो। साथ ही उसकी भावनाएँ सम्वेदनाएँ सुरक्षित रहे, मनोवृत्तियाँ उत्कृष्ट बनी रहे। प्रकृति-पर्यावरण और स्वभाव के प्रति यह निष्ठा, वस्तुतः उसे मिली अतिरिक्त बुद्धि के बदले, कृतज्ञता भरा अवदान है। अस्तित्व रक्षा के लिए भी अहिंसक जीवन-मूल्यों को पुनः स्थापित करना मानव का कर्तव्य है। सभ्यता और विकास को आधार प्रदान के लिए सौम्य, सात्विक और सुसंस्कृत भोजन शैली को अपनाना जरूरी है।

सलीम खान के मांसाहार भ्रमजाल का खण्ड़न।

1 - दुनिया में कोई भी मुख्य धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें सामान्य रूप से मांसाहार पर पाबन्दी लगाई हो या हराम (prohibited) करार दिया हो.

खण्ड़न- इस तर्क से मांसाहार ग्रहणीय नहीं हो जाता। यदि यही कारण है तो  ऐसा भी कोई प्रधान धर्म नहीं, जिस ने शाकाहार पर प्रतिबंध लगाया हो। प्रतिबंध तो मूढ़ बुद्धि के लिए होते है, विवेकवान के लिए संकेत ही पर्याप्त होते है। धर्म केवल हिंसा न करने का उपदेश करते है एवं हिंसा प्रेरक कृत्यों से दूर रहने की सलाह देते है। आगे मानव के विवेकाधीन है कि आहार व रोजमर्रा के वे कौन से कार्य है जिसमें हिंसा की सम्भावना है और उससे विरत रहकर हिंसा से बचा जा सकता है। सभी धर्मों में, प्रकट व अप्रकट रूप से सभी के प्रति अहिंसा के उद्देश्य से ही दया, करूणा, रहम आदि को उपदेशित किया गया है। पाबन्दीयां, मायवी और बचने के रास्ते निकालने वालों के लिए होती है, विवेकवान के लिए तो दया, करूणा, रहम, सदाचार, ईमान में अहिंसा ही गर्भित है।

2 - क्या आप भोजन मुहैया करा सकते थे वहाँ जहाँ एस्किमोज़ रहते हैं (आर्कटिक में) और आजकल अगर आप ऐसा करेंगे भी तो क्या यह खर्चीला नहीं होगा?

खण्ड़न- अगर एस्किमोज़ मांसाहार बिना नहीं रह सकते तो क्या आप भी शाकाहार उपलब्ध होते हुए एस्किमोज़ का बहाना आगे कर मांसाहार चालू रखेंगे? खूब!! एस्किमोज़ तो वस्त्र के स्थान पर चमड़ा पहते है, आप क्यों नही सदैव उनका वेश धारण किए रहते? अल्लाह नें आर्कटिक में मनुष्य पैदा ही नहीं किये थे,जो उनके लिये वहां पेड-पौधे भी पैदा करते, लोग पलायन कर पहुँच जाय तो क्या कीजियेगा। ईश्वर नें बंजर रेगीस्तान में भी इन्सान पैदा नहीं किए। फ़िर भी स्वार्थी मनुष्य वहाँ भी पहुँच ही गया। यह तो कोई बात नहीं हुई कि  दुर्गम क्षेत्र में रहने वालों को शाकाहार उपलब्ध नहीं, इसलिए सभी को उन्ही की आहार शैली अपना लेनी चाहिए। आपका यह एस्किमोज़ की आहारवृत्ति का बहाना निर्थक है। जिन देशों में शाकाहार उपलब्ध न था, वहां मांसाहार क्षेत्र वातावरण की अपेक्षा से मज़बूरन होगा और इसीलिए उसी वातावरण के संदेशकों-उपदेशकों नें मांसाहार पर उपेक्षा का रूख अपनाया होगा। लेकिन यदि उपलब्ध हो तो, सभ्य व सुधरे लोगों की पहली पसंद शाकाहार ही होता है। जहां सात्विक पौष्ठिक शाकाहार प्रचूरता से उपलब्ध है वहां जीवों को करूणा दान या अभयदान दे देना चाहिए। सजीव और निर्जीव एक गहन विषय है। जीवन वनस्पतियों आदि में भी है, लेकिन प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है। आप लोग दबी जुबां से कहते भी हो कि "मुसलमान, शाकाहारी होकर भी एक अच्छा मुसलमान हो सकता है" फ़िर मांसाहार की इतनी ज़िद्द ही क्यों?, और एक 'अच्छा मुसलमान' बनने से भला इतना परहेज भी क्यों ?

3 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनमें भी जीवन होता है.
4 - अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनको भी दर्द होता है.
5 - अगर मैं यह मान भी लूं कि उनमें जानवरों के मुक़ाबले कुछ इन्द्रियां कम होती है या दो इन्द्रियां कम होती हैं इसलिए उनको मारना और खाना जानवरों के मुक़ाबले छोटा अपराध है| मेरे हिसाब से यह तर्कहीन है.

खण्ड़न- इस विषय पर जानने के लिए शाकाहार मांसाहार की हिंसा के सुक्ष्म अन्तर  को समझना होगा। साथ ही हिंसा में विवेक  करना होगा। स्पष्ट हो जाएगा कि जीवहिंसा प्रत्येक कर्म में है, किन्तु हम विवेकशील है,  हमारा कर्तव्य बनता है, हम वह रास्ता चुनें जिसमे जीव हिंसा कम से कम हो। किन्तु आपके तर्क की सच्चाई यह है कि वनस्पति हो या पशु-पक्षी, उनमें जान साबित करके भी आपको किसी की जान बचानी नहीं है। आपको वनस्पति जीवन पर करूणा नहीं उमड़ रही, हिंसा अहिंसा आपके लिए अर्थहीन है, आपको तो मात्र सभी में जीव साबित करके फिर बडे से बडे प्राणी और बडी से बडी हिंसा का चुनाव करना है।

"एक यह भी कुतर्क दिया जाता है कि शाकाहारी सब्जीयों को पैदा करनें के लिये आठ दस प्रकार के जंतु व कीटों को मारा जाता है।"

खण्ड़न- इन्ही की तरह कुतर्क करने को दिल चाहता है………
भाई, इतनी ही अगर सभी जीवों पर करूणा आ रही है,और जब दोनो ही आहार हिंसाजनक है तो दोनो को छोड क्यों नहीं देते?  दोनो नहीं तो पूरी तरह से किसी एक की तो कुर्बानी(त्याग) करो…॥ कौन सा करोगे????


"ऐसा कोनसा आहार है,जिसमें हिंसा नहीं होती।"

खण्ड़न- यह कुतर्क ठीक ऐसा है कि 'वो कौनसा देश है जहां मानव हत्याएं नहीं होती?' इसलिए मानव हत्याओं को जायज मान लिया जाय? उसे सहज ही स्वीकार कर लिया जाय? और उसे बुरा भी न कहा जाय? आपका आशय यह है कि, जब सभी में जीवन हैं, और सभी जीवों का प्राणांत, हिंसादोष है तो सबसे उच्च्तम, क्रूर, घिघौना बडे जीव की हत्या का दुष्कर्म ही क्यों न अपनाया जाय? यह तो सरासर समझ का दिवालियापन है!!

तर्क से तो बिना जान निकले पशु शरीर मांस में परिणित हो ही नहीं सकता। तार्किक तो यह है कि किसी भी तरह का मांस हो, अंततः मुर्दे का ही मांस होगा। उपर से तुर्रा यह है कि हलाल तरीके से काटो तो वह मुर्दा नहीं । मांस के लिये जीव की जब हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मख्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मख्खियों को कैसे आभास हो जाता है। उसी क्षण से वह मांस मख्खियों के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही लगभग 563 तरह के सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार किया जाता है वह जगह व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मख्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव, और हज़ारों रोगाणु होते है। कहो, किसमें जीव हिंसा ज्यादा है।, मुर्दाखोरी में या अनाज दाल फ़ल तरकारी में?

रही बात इन्द्रिय के आधार पर अपराध की तो जान लीजिए कि हिंसा तो अपराध ही है बस क्रूरता और सम्वेदनाओं के स्तर में अन्तर है। जिस प्रकार किसी कारण से गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो होने वाले दुख की मात्रा व तीव्रता बढ़ती जाती है। कम से अधिकतम दुख महसुस होता है क्योंकि इसका सम्बंध भाव से है। उसी तरह अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा पर क्रूर भाव की श्रेणी बढती जाती है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। सम्वेदना भी अधिक से अधिक कुंदओ जानी चाहिए। आप कम इन्द्रिय पर अधिक करूणा की बात करते है न, क्या विकलेन्द्रिय भाई के अपराध के लिए इन्द्रिय पूर्ण भाई को फांसी दे देना न्यायोचित होगा? यदि दोनो में से किसी एक के जीवन की कामना करनी पडे तो किसके पूर्ण जीवन की कामना करेंगे? विकलेन्द्रिय या पूर्णइन्द्रिय?

6 -इन्सान के पास उस प्रकार के दांत हैं जो शाक के साथ साथ माँस भी खा/चबा सकता है.

7 - और ऐसा पाचन तंत्र जो शाक के साथ साथ माँस भी पचा सके. मैं इस को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी कर सकता हूँ | मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ.

खण्ड़न- मानते है इन्सान कुछ भी खा/चबा सकता है, किन्तु प्राकृतिक रूप से वह शिकार करने के काबिल हर्गिज नहीं है।  वे दांत शिकार के अनुकूल नहीं है। उसके पास तेज धारदार पंजे भी नहीं है। मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल है। मानव प्रकृति से शाकाहारी ही है। खाने चबाने को तो हमने लोगों को कांच चबाते देखा है, जहर और नशीली वस्तुएँ पीते पचाते देखा है। मात्र खाने पचाने का सामर्थ्य हो जाने भर से जहर, कीचड़, कांच मिट्टी आदि उसके प्राकृतिक आहार नहीं हो जाते। ‘खाओ जो पृथ्वी पर है’ का मतलब यह नहीं कि कहीं निषेध का उल्लेख न हो तो धूल, पत्थर, जहर, एसीड आदि भी खा लिया जाय। इसलिए ऐसे किसी बेजा तर्क से मांसहार करना तर्कसंगत सिद्ध नहीं हो जाता।

8 - आदि मानव मांसाहारी थे इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि यह प्रतिबंधित है मनुष्य के लिए | मनुष्य में तो आदि मानव भी आते है ना.

खण्ड़न- हां, देखा तो नहीं, पर सुना अवश्य था कि आदि मानव मांसाहारी थे। पर नवीनतम जानकारी तो यह भी मिली कि प्रगैतिहासिक मानव शाकाहारी था। यदि फिर भी मान लें कि वे मांसाहारी थे तो बताईए शिकार कैसे करते थे? अपने उन दो छोटे भोथरे दांतो से? या कोमल नाखूनो से? मानव तो पहले से ही शाकाहारी रहा है, उसकी मां के दूध के बाद उसकी पहली पहचान फलों - सब्जियों से हुई होगी। जब कभी कहीं, शाकाहार का अभाव रहा होगा तो पहले उसने हथियार बनाए होंगे फ़िर मांसाहार किया होगा। यानि हथियारों के अविष्कार के पहले वह फ़ल फ़ूल पर ही आश्रित था।

लेकिन फिर भी इस कुतर्क की जिद्द है तो, आदि युग में तो आदिमानव नंगे घुमते थे, क्या हम आज उनका अनुकरण करें? वे अगर सभ्यता के लिए अपनी नंगई छोड़ कर परिधान धारी बन सकते है तो हम आदियुगीन मांसाहारी से सभ्ययुगीन शाकाहारी क्यों नहीं बन सकते? हमारे आदि पूर्वजों ने इसी तरह विकास साधा है हम क्या उस विकास को आगे भी नहीं बढ़ा सकते?

9 - जो आप खाते हैं उससे आपके स्वभाव पर असर पड़ता है - यह कहना 'मांसाहार आपको आक्रामक बनता है' का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है.

खण्ड़न- इसका तात्पर्य ऐसा नहीं कि हिंसक पशुओं के मांस से हिंसक,व शालिन पशुओं के मांस से शालिन बन जाओगे।

इसका तात्पर्य यह है कि जब आप बार बार बड़े पशुओं की अत्यधिक क्रूरता से हिंसा करते है तब ऐसी हिंसा, और हिंसा से उपजे आहार के कारण, हिंसा के प्रति सम्वेदनशीलता खत्म हो जाती है। क्रूर मानसिकता पनपती है और हिंसक मनोवृति बनती है। ऐसी मनोवृति के कारण आवेश आक्रोश द्वेष सामान्य सा हो जाता है। क्रोधावेश में हिंसक कृत्य भी सामान्य होता चला जाता है। इसलिए आवेश आक्रोश की जगह कोमल संवेदनाओं का संरक्षण जरूरी है। जैसे- रोज रोज कब्र खोदने वाले के चहरे का भाव कभी देखा है?,पत्थर की तरह सपाट चहरा। क्या वह मरने वाले के प्रति जरा भी संवेदना या सहानुभूति दर्शाता है? वस्तुतः उसके बार बार के यह कृत्य में सलग्न रहने से, मौत के प्रति उसकी सम्वेदनाएँ मर जाती है।

10 - यह तर्क देना कि शाकाहार भोजन आपको शक्तिशाली बनाता है, शांतिप्रिय बनाता है, बुद्धिमान बनाता है आदि मनगढ़ंत बातें है.

खण्ड़न- हाथ कंगन को आरसी क्या?, यदि शाकाहारी होने से कमजोरी आती तो मानव कब का शाकाहार और कृषी छोड चुका होता। कईं संशोधनों से यह बात उभर कर आती रही है कि शाकाहार में शक्ति के लिए जरूरी सभी पोषक पदार्थ है। बाकी शक्ति सामर्थ्य के प्रतीक खेलो के क्षेत्र में अधिकांश खिलाडी शाकाहार अपना रहे है। कटु सत्य तो यह है कि शक्तिशालीशांतिप्रियबुद्धिमान बनाने के गुण मांसाहार में तो बिलकुल भी नहीं है।

11 - शाकाहार भोजन सस्ता होता है, मैं इसको अभी खारिज कर सकता हूँ, हाँ यह हो सकता है कि भारत में यह सस्ता हो. मगर पाश्चात्य देशो में यह बहुत कि खर्चीला है खासकर ताज़ा शाक.

खण्ड़न- भाड में जाय वो बंजर पाश्चात्य देश जो ताज़ा शाक पैदा नहीं कर सकते!! भारत में यह सस्ता और सहज उपलब्ध है तब यहां तो शाकाहार अपना लेना बुद्धिमानी है। सस्ते महंगे की सच्चाई तो यह है कि पशु से 1 किलो मांस प्राप्त करने के लिए उन्हें 13 किलो अनाज खिला दिया जाता है, उपर से पशु पालन उद्योग में बर्बाद होती है विशाल भू-सम्पदा, अनियंत्रित पानी का उपयोग निश्चित ही पृथ्वी पर भार है। मात्र  भूमि का अन्न उत्पादन के लिए प्रयोग हो तो निश्चित ही अन्न सभी जगह अत्यधिक सस्ता हो जाएगा। बंजर निवासियों को कुछ अतिरिक्त खर्चा करना पडे तब भी उनके लिए सस्ता सौदा होगा।

12 - अगर जानवरों को खाना छोड़ दें तो इनकी संख्या कितनी बढ़ सकती, अंदाजा है इसका आपको.

खण्ड़न- अल्लाह का काम आपने ले लिया? अल्लाह कहते है इन्हें हम पैदा करते है।

जो लोग ईश्वरवादी है, वे तो अच्छी तरह से जानते है, संख्या का बेहतर प्रबंधक ईश्वर ही है।

जो लोग प्रकृतिवादी है वे भी जानते है कि प्रकृति के पास जैव सृष्टि के संतुलन का गजब प्लान है।

करोडों साल से जंगली जानवर और आप लोग मिलकर शाकाहारी पशुओं को खाते आ रहे हो, फ़िर भी जिस प्रजाति के जानवरों को खाया जाता है, बिलकुल ही विलुप्त या कम नहीं हुए। उल्टे मांसाहारी पशु अवश्य विलुप्ति की कगार पर है। सच्चाई तो यह है कि जो जानवर खाए जाते है उनका बहुत बडे पैमाने पर उत्पादन होता है। जितनी माँग होगी उत्पादन उसी अनुपात में बढता जाएगा। अगर नही खाया गया तो उत्पादन भी नही होगा।

13 -कहीं भी किसी भी मेडिकल बुक में यह नहीं लिखा है और ना ही एक वाक्य ही जिससे यह निर्देश मिलता हो कि मांसाहार को बंद कर देना चाहिए.

खण्ड़न- मेडिकल बुक किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह 'अंतिम सत्य' नहीं है। वह इतनी इमानदार है कि कल को यदि कोई नई शोध प्रकाश मेँ आए तो वह अपनी 'बुक' में इमानदारी से परिवर्तन-परिवर्धन कर देगी। शाकाहार के श्रेष्ठ विकल्प पर अभी तक गम्भीर शोध-खोज नहीं हुई है। किन्तु सवाल जब मानव स्वास्थ्य का है तो कभी न कभी यह तथ्य अवश्य उभर कर आएगा कि मांसाहार मनुष्य के स्वास्थ्य के बिलकुल योग्य नहीं है। और फिर माँसाहार त्याग का उपाय सहज हो,अहानिकर हो तो माँसाहार से निवृति का स्वागत होना चाहिए। मेडिकल बुक में भावनाओं और सम्वेदनाओं पर कोई उल्लेख या निर्देश नहीं होता, तो क्या भावनाओं और सम्वेदनाओं की उपयोगिता महत्वहीन हो जाती है? यह भी ध्यान रहे भावोँ के कईं तथ्य और तत्व इस मेडिकल बुक में नहीं है, उस दशा में उस अन्तिम बुक को निरस्त कर देँगे जिस में किसी भी तरह का परिवर्तन ही सम्भव नहीं?

14 - और ना ही इस दुनिया के किसी भी देश की सरकार ने मांसाहार को सरकारी कानून से प्रतिबंधित किया है.

खण्ड़न- सरकारें क्यों प्रतिबंध लगायेगी? जबकि उसके निति-नियंता भी इसी समाज की देन है, यहीं से मानसिकता और मनोवृतियां प्राप्त करते है। लोगों का आहार नियत करना सरकारों का काम नहीं है।यह तो हमारा फ़र्ज़ है, हम विवेक से उचित को अपनाएं, अनुचित को दूर हटाएं। उदाहरण के लिए झुठ पर सरकारी कानून से प्रतिबंध कहीं भी नहीं लगाया गया है। फिर भी सर्वसम्मति से झूठ को बुरा माना जाता है। किसी प्रतिबंध से नहीं बल्कि नैतिक प्रतिबद्धता से हम झूठ का व्यवहार नहीं करते। कानून सच्च बोलने के लिए मजबूर नहीं कैसे कर पाएगा?  इसीलिए सच पाने के लिए अदालतों को धर्मशास्त्रों शपथ दिलवानी पडती है। ईमान वाला व्यक्ति इमान से ही सच अपनाता है और झूठ न बोलने को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर बचता है। उसी तरह अहिंसक आहार को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर अपनाना होता है।

हर प्राणी में जीवन जीने की अदम्य इच्छा होती है, यहां तक की कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के प्रतिकार की शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं से प्रतिकार शक्ति पैदा कर लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जिजीविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता।

इसलिए, 'ईमान' और 'रहम' की बात करने वाले 'शान्तिपसंद' मानव का यह फ़र्ज़ है कि वह जीए और जीने दे। 

क्या मांसाहार में कोई शक्ति है?

माँसाहार से आने वाले क्षणिक आवेश और उत्तेजना को उत्साह और शक्ति मान लिया जाता है। जबकि वह आवेग मात्र होता है विशिष्ट खोजों के द्वारा यह भी पता चला है कि जब किसी जानवर को मारा जाता है तब वह आतंक व वेदना से भयभीत हो जाता है उसका शरीर मरणांतक संघर्ष करता है परिणामस्वरूप उत्तेजक रसायन व हार्मोन उसके सारे शरीर में फैल जाते हैं और वे आवेशोत्पादक तत्व मांस के साथ उन व्यक्तियों के शरीर में पहुँचते हैं, जो उन्हें खाते हैं।

दिल्ली के राकलैंड अस्पताल की मुख्य डायटीशियन सुनीता कहती हैं कि माँसाहार के लिए जब पशुओं को काटा जाता है तो उनमें कुछ हार्मोनल बदलाव होते हैं। ये हार्मोनल प्रभाव माँसाहार का सेवन करने वालों के शरीर में भी पहुँच जाते हैं।

जीव या पशु संरचना पर ध्यान देने पर हम देखते हैं कि सर्वाधिक शक्तिशाली, परिश्रमी, व अधिक सहनशीलता वाले पशु जो लगातार कई दिन तक काम कर सकते हैं, जैसे हाथी, घोडा, बैल, ऊँट, आदि सब शाकाहारी होते हैं। इग्लेंड में परीक्षण करके देखा गया है कि स्वाभाविक माँसाहारी शिकारी कुत्तों को भी जब शाकाहार पर रखा गया तो उनकी बर्दाश्त शक्ति व क्षमता में वृद्धि हुई।
मांसाहार में कोई शक्ति नहीं, वह अल्पकालिक आवेश मात्र है।

क्या मांसाहार से मनोवृति पर कोई प्रभाव नहीं पडता?

यह सत्य है कि इंसान का अच्छा या बुरा, हिंसक अहिंसक होना उसकी अपनी प्रवृत्ति है। कोई जरूरी नहीं आहार के कारण ही एक समान प्रवृति दिखे। किन्तु यह प्रवृत्तियाँ भी उसकी क्रूर-अक्रूर वृत्तियोँ के कारण ही बनती है. दृश्यमान प्रतिशत भले ही कम हो फिर भी वृत्तियों का असर मनोवृति पर पडना अवश्यंभावी है। भाव के शुभ अशुभ चिंतन से ही व्यवहार और वर्तन का निर्माण होता है.व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके व्यवहार और व्यक्तित्व में आए बिना नहीं रहता। यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि मन की भावनाओं के अनुरूप मानव-शरीर में हार्मोन्स स्राव होता है और उन हार्मोन्स का प्रभाव, मन की भावनाओं और प्रवृतियों को बदलने में समर्थ होता है।

मांस प्राप्त करने के लिए जब प्राणी की हिंसा की जाती है। निसहाय होते हुए भी मरणांतक संघर्ष करता है। जैसे भय विवशता दुख हर्ष विषाद तनाव के समय प्रत्येक जीव के शरीर में उन भावनाओं को सहने योग्य अथवा प्रतिकार योग्य रसायनों का स्राव होता है। उसी प्रकार प्राणी मरने से पहले भयक्रांत होता है, जीवन बचाने की जिजीविषा में संघर्ष करता है। तड़पता है। उसके शरीर में भी तदनुकूल हार्मोन्स का स्राव होता है वे हार्मोन्स क्षण मात्र में रक्तप्रवाह के माध्यम से मांस-मज्जा तक पहुँच कर संग्रहित हो जाते है। इन हार्मोन्स का प्रभाव भय, आवेश, क्रोध, दुस्साहस आदि पैदा करना होता है। ऐसे संघर्षशील प्राणी के मरने के उपरान्त भी ये हार्मोन उसके मांस-मज्जा में सक्रीय रहते है। ऐसा मृत प्राणी-मांस जब मनुष्य आहार द्वारा अपने शरीर में ग्रहण करता है, वे हार्मोन्स मानव शरीर में प्रवेश कर सक्रिय होते है। परिणाम स्वरूप मांसाहारी भिन्न- भिन्न आवेशों को महसुस करता है।(शायद, अपराधी अपराध के समय अक्सर मांस शराब आदि का सेवन इन्ही दुस्साहस युक्त आवेशों को पाने के लिए करता होगा) वे आवेग कुछ पल के लिए नशे की तरह आवेश आक्रोश उत्पन्न करते है जो प्रथमतः स्फूर्तिवर्धक प्रतीत हो सकते है। हमें भ्रम होता है कि शरीर में अतिरिक्त उर्जा का संचार हुआ है जबकि वह आवेग मात्र होता है।

ग्वालियर के दो शोधकर्ताओं, डॉ0 जसराज सिंह और सी0 के0 डेवास ने ग्वालियर जेल के 400 बन्दियों पर शोध कर ये बताया कि 250 माँसाहारियों में से 85% चिड़चिड़े व लडाकू प्रवृति के मिले। जबकि शेष 150 शाकाहारी बन्दियों में से 90% शांत स्वभाव और खुश मिजाज थे।

पिछले दिनों अमेरिका के एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने इस बात को प्रमाणित किया कि माँसाहार का असर व्यक्ति की मनोदशा पर भी पड़ता है। ज्यादा मांसाहार से चिड़चिड़ेपन के साथ स्वभाव उग्र होने लगता है। शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि लोगों की हिंसक प्रवृत्ति का सीधा संबंध माँसाहार के सेवन से है।

शाकाहारी था प्रागैतिहासिक मानव

लंदन। नेशनल अकादमी आफ साइंसेज जर्नल में कल प्रकाशित अनुसंधान रिपोर्ट के मुताबिक पुरापाषाण काल के यूरोपीय आलू जैसे किसी शाक को पीस कर आटा बनाते थे और बाद में इसमें पानी मिला कर इस आटे को माढ लेते थे। अनुसंधानकर्ताओं में शामिल इटालियन इंस्टीटयूट आफ प्रिहिस्ट्री एडं अर्ली हिस्ट्री की खोजकर्ता लाउरा लोन्गो ने बताया कि यह बिल्कुल चपटी रोटी के जैसा होता था। उन्होंने कहा कि इसे गर्म पत्थरों पर सेंका जाता था, जो पकने के बाद करारी तो भले होती थी, लेकिन बहुत स्वादिष्ट नहीं होती थी। किसी वयस्क की हथेली में लगभग समा जाने वाले और पीसने के काम में आने वाले पत्थर इटली, रूस और चेक गणतंत्र में पुरातात्विक जगहों पर मिले हैं। करीब 30 हजार वर्ष पुराने पत्थरों पर खाद्यान्न के टुकडे पाए गए हैं। रोटी से पुराना है नाता इससे पहले इजरायल में मिले 20 हजार वर्ष पुराने पत्थरों पर खाद्यान्न मिलने के बाद यह अनुमान लगाया गया था कि पहली बार आटे का इस्तेमाल 20 हजार वर्ष पहले किया गया था। नयी खोज से पता चला है कि रोटी का प्रचलन 30 हजार वर्ष पहले भी था। इस अनुसंधान ने इस धारणा को चुनौती दी है कि प्रागैतिहासिक काल का मानव मुख्य भोजन के रूप में मांस खाता था। नए साक्ष्य बताते हैं कि भारत जैसे देशों में मुख्य भोजन रोटी का उपयोग प्राचीन काल में भी होता था।

शाकाहार से प्रकृति और पर्यावरण को लाभ



शाकाहार और मांसाहार को लेकर पिछले कई दशकों से चल रहे विवाद में भले ही दोनों पक्षों के पास अपने अपने प्रबल तर्क हों, लेकिन शाकाहार के पक्ष में यह बात सबसे महत्वपूर्ण साबित होती है कि इसके जरिये प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने की बजाय लाभ होता है। दुनियाभर में शाकाहार को बढ़ावा देने वाली प्रतिष्ठित संस्था ‘पेटा’ की प्रवक्ता बेनजीर सुरैया ने कहा“भारत शाकाहार का जन्मस्थान रहा है और ‘विश्व शाकाहार दिवस’ के मौके पर हमें शाकाहारी होने पर विचार करना चाहिये। इससे हानिकारक गैसों का उत्पादन रुकेगा और जलवायु परिवर्तन रुकेगा। इसके अलावा आप खुद भी चुस्त दुरुस्त रहेंगे।“

बेनजीर ने बताया कि अध्ययन से पता चला है कि शाकाहारी लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता मांस खाने वाले लोगों से ज्यादा मजबूत होती है। इसी तरह शाकाहारी लोगों को दिल से जुड़ी बीमारियांकैंसर और मोटापा जैसी बीमारियां बहुत ही कम होती हैं। आहार विशेषज्ञ डॉक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने कहा“आहार विशेषज्ञ होने के नाते मैं जानती हूं कि मेरे शरीर के लिये शाकाहारी भोजन ही सबसे उत्तम है। मांसअंडे और डेयरी उत्पाद छोड़ देने से कम वसाकम कोलेस्ट्राल और बहुत पौष्टिक खाना मिलता है।“

उन्होंने कहा,“भारत में हृदय से जुड़ी बीमारियाँमधुमेह और कैंसर के मामले बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं और इसका सीधा संबंध अंडोंमांस और डेयरी उत्पादों जैसे मक्खनपनीर और आईपीम की बढ़ रही खपत से है।“ भारत में तेजी से बढ़ रहे मधुमेह टाइप से पीड़ित लोग शाकाहार अपना कर इस बीमारी पर नियंत्रण पा सकते हैं और अपना मोटापा भी घटा सकते हैं। शाकाहारी खाने में कोलेस्ट्राल नहीं होताबहुत कम वसा होती हैऔर यह कैंसर के खतरे को 40 फीसद कम करता है।“  

बेनजीर ने कहा“शाकाहारी खाना खाने वाले लोगों में मांस खाने वाले लोगों की तुलना में मोटापे का खतरा एक चौथाई ही रहता है।“ उन्होंने कहा“खाने के लिये पशुओं की आपूर्ति में बड़े पैमाने पर जमीनखाद्यान्न,बिजली और पानी की जरूरत होगी।  वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जलवायु परिवर्तन को रोकनेप्रदूषण को कम करनेजंगलों को काटे जाने को रोकने और दुनियाभर से भुखमरी को खत्म करने के लिये वैश्विक स्तर पर शाकाहारी भोजन अपनाया जाना जरूरी है।“  डॉक्टर भुवनेश्वरी गुप्ता ने कहा कि एक स्वास्थ्यवर्धक तथा संतुलित शाकाहारी खाने में सभी अनाजफलसब्जियांफलियांबादाम,सोया दूध और जूस आता है।  यह खाना आपकी दिन प्रतिदिन की विटामिनकैल्शियमआयरनफोलिक एसिडविटामिन सीप्रोटीन और अन्य जरूरतों को पूरा करता है। 

शाकाहार सम्बन्धी कुछ भ्रम और उनका निवारण


भ्रम # 1- आदिमानव माँसाहारी था।
यदपि नवीनतम शोध से यह स्थापित हो चुका है कि प्रागैतिहासिक मानव शाकाहारी भी था, तथापि आदिमानव अपनी आदिम असभ्य आदतों को सुधार कर ही सभ्य अथवा सुसंस्कृत बना है। शाकाहार शैली  उसी सभ्यता का परिणाम है। आज विकास मार्ग की और गति करते हुए, परित्यक्त आदिम आहार शैली (माँसाहार) को पुनः अपनाकर जंगलीयुग में लौटना तो सभ्यता का पतन है। यदि आदिम प्रवृति को ही जीवन-आधार बनाना है तो आदिमानव अनावृत घुमता था, क्या आज हमें भी वह निर्वस्त्र दशा अपना लेनी चाहिए? आज उन प्रारम्भिक  आदतों का अनुकरण किसी भी दशा में उचित नहीं है। शिकार, पशुहिंसा और मांसाहार शैली, मानव सभ्यता के विकास के साथ ही समाप्त हो जानी चाहिए। उससे लगे रहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।
भ्रम # 2- विश्व में अधिकतर आबादी माँसाहारी है इसलिए माँसाहार सही है
अधिसंख्य या भीड का अनुकरण सदैव हितकर नहीं होता। यह कोई भेड़चाल नहीं है, यदि सभी कुंए में कूद रहे है तो हमें भी कूद जाना चाहिए। धरा पर हीरे और कंकर दोनो ही उपलब्ध है, कंकर अधिसंख्या में है तो हीरे बहुत ही न्यून मात्रा में ही प्राप्य है। मात्र अधिसंख्या के कारण, कंकर मूल्यवान नहीं हो जाते! संख्या भले कम हो बेशकीमती तो हीरे ही रहेंगे। महत्व हमेशा गुणवत्ता (क्वालिटी) का होता है  मात्रा (क्वांटिटी) का नहीं। इसलिए अधिकतर आबादी का अनुकरण मूर्खता है। अनुकरण तो हर हाल में विवेक-बुद्धि का ही उत्तम है।
भ्रम # 3- वनस्पति अभाव वाले बर्फ़ीले प्रदेश व रेगिस्तान के लोग क्या खाएंगे?
अगर वनस्पति व कृषि उपज से अभाव वाले क्षेत्रों को शाकाहार सहज उपलब्ध नहीं, तो हमें भी शाकाहार का त्याग कर माँसाहार अपनाना चाहिए!! अज़ीब तर्क है? यहां कोई मूर्खता भरा साम्यवादी पागलपन नहीं है कि विश्व के किसी कोने में लोग रोटी को मोहताज़ है तो पूरे संसार को भूखों मरना चाहिए। अभावग्रस्तों के आहार का अनुकरण करने से क्या वे अभावी खुश होंगे? क्या उन्हें नैतिक समर्थन मिलेगा? जहां भरपूर शाकाहार उपलब्ध है उसे फैक कर एस्कीमो आदि का साथ देना चाहिए? होना तो यह चाहिए कि उन्हें भी हम पोषक शाकाहार उपलब्ध करवाएं। आज के विकसित युग में किसी भी प्रकार का भोजन धरा के किसी भी कोने में, बल्कि अंतरिक्ष में भी पहुँचाया जा सकता है। अतः इस "क्या खायेंगे" वाले बहाने में कोई दम नहीं है।

भ्रम # 4- सभी शाकाहारी हो जाय तो इतना अनाज कहां से आएगा ? पूरा विश्व  शाकाहारी हो जाय तो पूरे विश्व की जनता को खिलाने लायक अनाज का उत्पादन करने के लिए हमें ऐसी चार और पृथ्वियों की आवश्यकता होगी।
दुनिया में बढ़ती भुखमरी-कुपोषण का एक मुख्य कारण माँसाहार का बढ़ता प्रचलन है। माँस पाने ले लिए जानवरों का पालन पोषण देखरेख और माँस का प्रसंस्करण करना एक लम्बी व जटिल एवं पृथ्वी-पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली प्रक्रिया है। एक अनुमान के मुताबिक एक एकड़ भूमि पर जहाँ 8000 कि ग्रा हरा मटर, 24000 कि ग्रा गाजर और 32000 कि ग्रा टमाटर पैदा किए जा सकतें है वहीं उतनी ही जमीन का उपभोग करके, मात्र 200कि ग्रा. माँस पैदा किया जा सकता है। स्पष्ट है कि आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन प्राप्त करने में अनेकगुना जमीन और संसाधनों का अपव्यय होता है। इस समय दुनिया की दो-तिहाई भूमि चरागाह व पशु आहार तैयार करने में झोक दी गई है। यदि माँस उत्पादन में व्यर्थ हो रहे अनाज, जल और भूमि आदि संसाधनो का सदुपयोग किया जाय तो इस एक ही पृथ्वी पर शाकाहार की बहुतायत हो जाएगी।
भ्रम # 5- प्रोटीन की प्रतिपूर्ति माँसाहार से ही सम्भव है:
अकसर कहा जाता हैं कि शाकाहारी लोग प्रोटीन के पोषण से वंचित रह जाते हैं।  यह बहुत बडी गलतफहमी है कि माँसाहार ही प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। शायद आपको यह नहीं मालूम कि वनस्पतियों से प्राप्त होने वाला प्रोटीन कोलेस्ट्रॉल रहित होता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में फाइबर भी पाया जाता है, जो पाचन तंत्र और हड्डियों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद होता है। दरअसल अमिनो एसिड प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है, जो कि दालों और सब्जियों में भी पाया जाता है। शाकाहारी पशु तो बेचारे मांस नहीं खाते, फिर उनके शरीर में इतना प्रोटीन कहाँ से आता है, हाथी का विशाल शरीर, घोडे में अनवरत बल और बैल में शक्ति कहां से आती है। यदि वनस्पति ग्रहण करके भी शाकाहारी पशु-शरीर इतनी विशाल मात्रा में प्रोटीन बनाने में सक्षम है तो शाकाहार लेकर मानव शरीर अपना आवश्यक प्रोटीन क्यों नहीं बना सकता? सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन संख्या ''23'' के अनुसार सच्चाई सामने आती है कि प्रति 100 ग्रा. के अनुसार अंडों में जहाँ ''13 ग्रा.'' प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में ''24 ग्रा.'', मूंगफली में ''31 ग्रा.'', दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में ''43 ग्रा.'' प्रोटीन होता है।
भ्रम # 6- संतुलित आहार के लिए, शाकाहार में मांसाहार का समन्वय जरूरी है:
बिलकुल नहीं, आहार को संतुलित करने के लिए मांसाहार को जोडने की कोई आवश्यकता नहीं है। शाकाहारी पोषक पदार्थों में ही इतनी विभिन्नता है कि पोषण को शाकाहारी पदार्थों से ही पूर्ण संतुलित किया जा सकता है। संतुलित पोषण मेनू में माँसाहार की आवश्यकता रत्तीभर भी नहीं है। मांसाहार से पोषक मूल्यों को संतुलित करने की यह धारणा पूरी तरह गलत है। उलटे मांसाहार के दुष्परिणामों को सन्तुलित करने के लिए उसके साथ पर्याप्त मात्रा में शाकाहारी पदार्थ लेना आवश्यक है। मात्र माँसाहार पर मानव जी भी नहीं सकता। केवल मांसाहार पर निर्भर रहने वाले एस्कीमो की ओसत आयु मात्र 30 वर्ष है। मांसाहार की तुलना में फलों, सब्जियों और दालों  आदि शाकाहारी भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा और कोशिकाओं को पोषण देने वाले आवश्यक माइक्रोन्यूट्रिएंट तत्व संतुलित मात्रा में पाए जाते हैं। निरोगी रखने वाले निरामय आहार-रेशे (फाइबर) तो मात्र शाकाहार में ही उपलब्ध है। पोषण संतुलन के लिए माँसाहार का संयोजन तो क्या उसकी हवा की भी आवश्यकता नहीं है।
भ्रम # 7- हिंसा तो वनस्पति आहार में भी है:
पौधों में प्राणियों जैसी सम्वेदना का प्रश्न ही नहीं उठता। उनमें सम्वेदी तंत्रिकातंत्र पूर्णतः अनुपस्थित है। न उनमें उस भांति मस्तिष्क होता है और न ही प्राणियों जैसी सम्वेदी-तंत्र संरचना। सम्वेदना तंत्र के अभाव में शाकाहार और मांसाहार के लिए पौधों और पशुओं के मध्य समान हिंसा की कल्पना पूरी तरह से असंगत है। जैसे एक समान दिखने वाले कांच और हीरे के मूल्य में अंतर होता है और वह अंतर उनकी गुणवत्ता के आधार पर होता है। उसी प्रकार एक बकरे के जीव और एक फल के जीव के जीवन-मूल्य में भी भारी अंतर है। पशुपक्षी में चेतना जागृत होती है उन्हें मरने से भय व आतंक लगता है। क्षुद्र से क्षुद्र कीट भी मृत्यु या शरीरोच्छेद से बचना चाहता है। पशु पक्षी आदि में पाँच इन्द्रिय होती है वह जीव उन पाँचो इन्द्रियों से सुख अथवा दुख अनुभव करता है, सहता है, भोगता है। कान, आंख, नाक, जिव्हा और त्वचा तो उन इन्द्रियों के उपकरण मात्र है इन इन्द्रिय अवयवों के त्रृटिपूर्ण या निष्क्रिय होने पर भी पाँच इन्द्रिय जीव, प्राणघात और मृत्युवेदना, सभी पाँचों इन्द्रिय सम्वेदको से अनुभव करता है। यही वह संरचना है जिसके आधार पर प्राणियों का सम्वेदी तंत्रिका तंत्र काम करता है। जाहिर है, जीव जितना अधिक इन्द्रियसमर्थ होगा, उसकी मरणांतक वेदना और पीड़ा उतनी ही दारुण होगी। इसीलिए पंचेन्द्रिय (पशु-पक्षी आदि) का प्राण-घात, क्रूरतम प्रक्रिया होती है। क्रूर भावों के निस्तार के लिए, करूणा यहां प्रासंगिक है। विवेक यहां अहिंसक या अल्पहिंसक विकल्प का आग्रह करता है और वह निर्दोष विकल्प शतप्रतिशत शाकाहार ही है।

शाकाहार श्रेष्ठ-पौष्टिक और सात्विक आहार

एक प्रेस समाचार के अनुसार अमरीका में डेढ़ करोड़ व्यक्ति शाकाहारी हैं। दस वर्ष पूर्व नीदरलैंड की ''1.5% आबादी'' शाकाहारी थी जबकि वर्तमान में वहाँ ''5%'' व्यक्ति शाकाहारी हैं। सुप्रसिद्ध गैलप मतगणना के अनुसार इंग्लैंड में प्रति सप्ताह ''3000 व्यक्ति'' शाकाहारी बन रहे हैं। वहाँ अब ''25 लाख'' से अधिक व्यक्ति शाकाहारी हैं। सुप्रसिद्ध गायक माइकेल जैकसन एवं मैडोना पहले से ही शाकाहारी हो चुके हैं। अब विश्व की सुप्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा ने भी 'शाकाहार' व्रत धारण कर लिया है। बुद्धिजीवी व्यक्ति शाकाहारी जीवन प्रणाली को अधिक आधुनिक, प्रगतिशील और वैज्ञानिक कहते हैं एवं अपने आपको शाकाहारी कहने में विश्व के प्रगतिशील व्यक्ति गर्व महसूस करते हैं।संसार के महान बुद्धिजीवी, उदाहरणार्थ अरस्तू, प्लेटो, लियोनार्दो दविंची, शेक्सपीयर, डारविन, पी.एच.हक्सले, इमर्सन, आइन्सटीन, जार्ज बर्नार्ड शा, एच.जी.वेल्स, सर जूलियन हक्सले, लियो टॉलस्टॉय, शैली, रूसो आदि सभी शाकाहारी ही थे।

विश्वभर के डॉक्टरों ने यह साबित कर दिया है कि शाकाहारी भोजन उत्तम स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है। फल-फूल, सब्ज़ी, विभिन्न प्रकार की दालें, बीज एवं दूध से बने पदार्थों आदि से मिलकर बना हुआ संतुलित आहार भोजन में कोई भी जहरीले तत्व नहीं पैदा करता। इसका प्रमुख कारण यह है कि जब कोई जानवर मारा जाता है तो वह मृत-पदार्थ बनता है। यह बात सब्ज़ी के साथ लागू नहीं होती। यदि किसी सब्ज़ी को आधा काट दिया जाए और आधा काटकर ज़मीन में गाड़ दिया जाए तो वह पुन: सब्ज़ी के पेड़ के रूप में हो जाएगी। क्योंकि वह एक जीवित पदार्थ है। लेकिन यह बात एक भेड़, मेमने या मुरगे के लिए नहीं कही जा सकती। अन्य विशिष्ट खोजों के द्वारा यह भी पता चला है कि जब किसी जानवर को मारा जाता है तब वह इतना भयभीत हो जाता है कि भय से उत्पन्न ज़हरीले तत्व उसके सारे शरीर में फैल जाते हैं और वे ज़हरीले तत्व मांस के रूप में उन व्यक्तियों के शरीर में पहुँचते हैं, जो उन्हें खाते हैं। हमारा शरीर उन ज़हरीले तत्वों को पूर्णतया निकालने में सामर्थ्यवान नहीं हैं। नतीजा यह होता है कि उच्च रक्तचाप, दिल व गुरदे आदि की बीमारी मांसाहारियों को जल्दी आक्रांत करती है। इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से हम पूर्णतया शाकाहारी रहें।

पोषण : 

अब आइए, कुछ उन तथाकथित आँकड़ों को भी जाँचें जो मांसाहार के पक्ष में दिए जाते हैं। जैसे, प्रोटीन की ही बात लीजिए। अक्सर यह दलील दी जाती है कि अंडे एवं मांस में प्रोटीन, जो शरीर के लिए एक आवश्यक तत्व है, अधिक मात्रा में पाया जाता है। किंतु यह बात कितनी ग़लत है यह इससे साबित होगा कि सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन संख्या ''23'' के अनुसार ही ''100 ग्रा''. अंडों में जहाँ ''13 ग्रा.'' प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में ''24 ग्रा.'', मूंगफल्ली में ''31 ग्रा.'', दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में ''43 ग्रा.'' प्रोटीन होता है। अब आइए कैलोरी की बात करें। जहाँ ''100 ग्रा.'' अंडों में ''173 कैलोरी'', मछली में ''91 कैलोरी'' व मुर्गे के गोश्त में ''194 कैलोरी'' प्राप्त होती हैं वहीं गेहूँ व दालों की उसी मात्रा में लगभग ''330 कैलोरी'', सोयाबीन में ''432 कैलोरी'' व मूंगफल्ली में ''550 कैलोरी'' और मक्खन निकले दूध एवं पनीर से लगभग ''350 कैलोरी'' प्राप्त होती है। फिर अंडों के बजाय दाल आदि शाकाहार सस्ता भी है। तो हम निर्णय कर ही सकते हैं कि स्वास्थ्य के लिए क्या चीज़ ज़रूरी है। फिर कोलस्ट्रोल को ही लीजिए जो कि शरीर के लिए लाभदायक नहीं है। ''100 ग्राम'' अंडों में कोलस्ट्रोल की मात्रा ''500 मि.ग्रा.'' है और मुरगी के गोश्त में ''60'' है तो वहीं कोलस्ट्रोल सभी प्रकार के अन्न, फलों, सब्ज़ियों, मूंगफली आदि में 'शून्य' है। अमरीका के विश्व विख्यात पोषण विशेषज्ञ डॉ.माइकेल क्लेपर का कहना है कि अंडे का पीला भाग विश्व में कोलस्ट्रोल एवं जमी चिकनाई का सबसे बड़ा स्रोत है जो स्वास्थ्य के लिए घातक है। इसके अलावा जानवरों के भी कुछ उदाहरण लेकर हम इस बात को साबित कर सकते हैं कि शाकाहारी भोजन स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। जैसे गेंडा, हाथी, घोड़ा, ऊँट। क्या ये ताकतवर जानवर नहीं हैं? यदि हैं, तो इसका मुख्य कारण है कि वे शुद्ध शाकाहारी हैं। इस प्रकार शाकाहारी भोजन स्वास्थ्यप्रद एवं पोषण प्रदान करनेवाला है।

स्वाभाविक भोजन: 

मनुष्य की संरचना की दृष्टि से भी हम देखेंगे कि शाकाहारी भोजन हमारा स्वाभाविक भोजन है। गाय, बंदर, घोड़े और मनुष्य इन सबके दाँत सपाट बने हुए हैं, जिनसे शाकाहारी भोजन चबाने में सुगमता रहती हैं, जबकि मांसाहारी जानवरों के लंबी जीभ होती है एवं नुकीले दाँत होते हैं, जिनसे वे मांस को खा सकते हैं। उनकी आँतें भी उनके शरीर की लंबाई से दुगुनी या तिगुनी होती हैं जबकि शाकाहारी जानवरों की एवं मनुष्य की आँत उनके शरीर की लंबाई से सात गुनी होती है। अर्थात, मनुष्य शरीर की रचना शाकाहारी भोजन के लिए ही बनाई गई हैं, न कि मांसाहार के लिए।

अहिंसा और जीव दया : 

आज विश्व में सबसे बड़ी समस्या है, विश्व शांति की और बढ़ती हुई हिंसा को रोकने की। चारों ओर हिंसा एवं आतंकवाद के बादल उमड़ रहे हैं। उन्हें यदि रोका जा सकता हैं तो केवल मनुष्य के स्वभाव को अहिंसा और शाकाहार की ओर प्रवृत्त करने से ही। महाभारत से लेकर गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, भगवान महावीर, गुरुनानक एवं महात्मा गांधी तक सभी संतों एवं मनीषियों ने अहिंसा पर विशेष ज़ोर दिया है। भारतीय संविधान की धारा ''51 ए (जी)'' के अंतर्गत भी हमारा यह कर्तव्य है कि हम सभी जीवों पर दया करें और इस बात को याद रखें कि हम किसी को जीवन प्रदान नहीं कर सकते तो उसका जीवन लेने का भी हमें कोई हक नहीं हैं।

Saturday, February 16, 2013


सेहत के लिए नुकसानदेह हो सकती है चाय


मित्रो चाय के बारे मे सबसे पहली बात ये कि चाय जो है वो हमारे देश भारत का उत्पादन नहीं है ! अंग्रेज़ जब भारत आए थे तो अपने साथ चाय का पौधा लेकर आए थे ! और भारत के कुछ ऐसे स्थान जो अंग्रेज़ो के लिए अनुकूल (जहां ठंड बहुत होती है) वहाँ पहाड़ियो मे चाय के पोधे लगवाए और उस मे से चाय होने लगी !तो अंग्रेज़ अपने साथ चाय लेकर आए भारत मे कभी चाय हुई नहीं !1750 से पहले भारत मे कहीं भी चाय का नाम और निशान नहीं था ! ब्रिटिशर आए east india company लेकर तो उन्होने चाय के बागान लगाए ! और उन्होने ये अपने लिये  लगाये  !
क्यूँ लगाये  ???
चाय एक medicine है इस बात को ध्यान से पढ़िये ! चाय एक medicine है लेकिन सिर्फ उन लोगो के लिए जिनका blood pressure low रहता है ! और जिनका blood pressure normal और high रहता है चाय उनके लिए जहर है !!
low blood pressure वालों के लिए चाय अमृत है और जिनका high और normal रहता है चाय उनके लिए जहर है !
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अब अंग्रेज़ो की एक समस्या है वो आज भी है और हजारो साल से है ! सभी अंग्रेज़ो का BP low रहता है ! सिर्फ अंग्रेज़ो का नहीं अमरीकीयों का भी ,कैनेडियन लोगो का भी ,फ्रेंच लोगो भी और जर्मनस का भी, स्वीडिश का भी ! इन सबका BP LOW रहता है !
कारण क्या है ???
कारण ये है कि बहुत ठंडे इलाके मे रहते है बहुत ही अधिक ठंडे इलाके मे ! उनकी ठंड का तो हम अंदाजा नहीं लगा सकते ! अंग्रेज़ और उनके आस पास के लोग जिन इलाको मे रहते है वहाँ साल के 6 से 8 महीने तो सूरज ही नहीं निकलता ! और आप उनके तापमान का अनुमान लगाएंगे तो – 40 तो उनकी lowest range है ! मतलब शून्य से भी 40 डिग्री नीचे 30 डिग्री 20 डिग्री ! ये तापमान उनके वहाँ सामान्य  रूप से रहता है क्यूंकि सूर्य निकलता ही नहीं ! 6 महीने धुंध ही धुंध रहती है आसमान मे ! ये इन अंग्रेज़ो की सबसे बड़ी तकलीफ है !!
ज्यादा ठंडे इलाके मे जो भी रहेगा उनका BP low हो जाएगा ! आप भी करके देख सकते है ! बर्फ की दो सिलियो को खड़ा कर बीच मे लेट जाये 2 से 3 मिनट मे ही BP लो होना शुरू हो जाएगा ! और 5 से 8 मिनट तक तो इतना low हो जाएगा जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी ! फिर आपको शायद समझ आए ये अंग्रेज़ कैसे इतनी ठंड मे रहते है !घरो के ऊपर बर्फ, सड़क पर बर्फ,गड़िया बर्फ मे धस जाती है ! बजट का बड़ा हिस्सा सरकारे बर्फ हटाने मे प्रयोग करती है ! तो वो लोग बहुत बर्फ मे रहते है ठंड बहुत है blood pressure बहुत low रहता है !
अब तुरंत blood को stimulent चाहिए ! मतलब ठंड से BP बहुत low हो गया ! एक दम BP बढ़ाना है तो चाय उसमे सबसे अच्छी है और दूसरे नमबर पर कॉफी ! तो चाय उन सब लोगो के लिए बहुत अच्छी है जो बहुत ही अधिक ठंडे इलाके मे रहते है ! अगर भारत मे कश्मीर की बात करे तो उन लोगो के लिए चाय,काफी अच्छी क्यूंकि ठंड बहुत ही अधिक है !!
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लेकिन बाकी भारत के इलाके जहां तापमान सामान्य रहता है ! और मुश्किल से साल के 15 से 20 दिन की ठंड है !वो भी तब जब कोहरा बहुत पड़ता है हाथ पैर कांपने लगते है तापमान 0 से 1 डिग्री के आस पास होता है ! तब आपके यहाँ कुछ दिन ऐसे आते है जब आप चाय पी लो या काफी पी लो !
लेकिन पूरे साल चाय पीना और everytime is tea time ये बहुत खतरनाक है ! और कुछ लोग तो कहते बिना चाय पीए तो सुबह toilet भी नहीं जा सकते ये तो बहुत ही अधिक खतरनाक है !
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इसलिए उठते ही अगर चाय पीने की आपकी आदत है तो इसको बदलिये !!
नहीं तो होने वाला क्या है सुनिए !अगर normal BP आपका है और आप ऐसे ही चाय पीने की आदत जारी रखते है तो धीरे धीरे BP high होना शुरू होगा ! और ये high BP फिर आपको गोलियो तक लेकर जाएगा !तो डाक्टर कहेगा BP low करने के लिए गोलिया खाओ ! और ज़िंदगी भर चाय भी पियो जिंदगी भर गोलिया भी खाओ ! डाक्टर ये नहीं कहेगा चाय छोड़ दो वो कहेगा जिंदगी भर गोलिया खाओ क्यूंकि गोलिया बिकेंगी तो उसको भी कमीशन मिलता रहेगा !
तो आप अब निर्णय लेलों जिंदगी भर BP की गोलीया खाकर जिंदा रहना है तो चाय पीते रहो ! और अगर नहीं खानी है तो चाय पहले छोड़ दो !
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एक जानकारी और !
आप जानते है गर्म देश मे रहने वाले लोगो का पेट पहले से ही अम्लीय (acidic) होता ! और ठंडे देश मे रहने वाले लोगो का पेट पहले से ही क्षारीय (alkaline) होता है ! और गर्म देश मे रहने वाले लोगो का पेट normal acidity से ऊपर होता है और ठंड वाले लोगो का normal acidity से भी बहुत अधिक कम ! मतलब उनके blood की acidity हम मापे और अपने देश के लोगो की मापे तो दोनों मे काफी अंतर रहता है !
अगर आप ph स्केल को जानते है तो हमारा blood की acidity 7.4 ,7.3 ,7.2 और कभी कभी 6.8 के आस पास तक चला जाता है !! लेकिन यूरोप और अमेरिका के लोगो का +8 और + 8 से भी आगे तक रहता है !
तो चाय पहले से ही acidic (अम्लीय )है और उनके क्षारीय (alkaline) blood को थोड़ा अम्लीय करने मे चाय कुछ मदद करती है ! लेकिन हम लोगो का blood पहले से ही acidic है और पेट भी acidic है ऊपर हम चाय पी रहे है तो जीवन का सर्वनाश कर रहे हैं !तो चाय हमारे रकत (blood ) मे acidity को और ज्यादा बढ़ायी गई !! और जैसा आपने राजीव भाई की पहली post मे पढ़ा होगा (heart attack का आयुर्वेदिक इलाज मे )!
आयुर्वेद के अनुसार रक्त (blood ) मे जब अमलता (acidity ) बढ़ती है तो 48 रोग शरीर मे उतपन होते है ! उसमे से सबसे पहला रोग है ! कोलोस्ट्रोल का बढ़ना ! कोलोस्ट्रोल को आम आदमी की भाषा मे बोले तो मतलब रक्त मे कचरा बढ़ना !! और जैसे ही रक्त मे ये कोलोस्ट्रोल बढ़ता है तो हमारा रक्त दिल के वाहिका (नालियो ) मे से निकलता हुआ blockage करना शुरू कर देता है ! और फिर हो blockage धीरे धीरे इतनी बढ़ जाती है कि पूरी वाहिका (नली ) भर जाती है और मनुष्य को heart attack होता है !
तो सोचिए ये चाय आपको धीरे धीरे कहाँ तक लेकर जा सकती है !!
इसलिए कृपया इसे छोड़ दे !!!
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अब आपने इतनी अम्लीय चाय पी पीकर जो आजतक पेट बहुत ज्यादा अम्लीय कर लिया है ! इसकी अम्लता को फिर कम करिए !
कम कैसे करेंगे ??
सीधी सी बात पेट अम्लीय (acidic )है तो क्षारीय चीजे अधिक खाओ !
क्यूकि अमल (acidic) और क्षार (alkaline) दोनों लो मिला दो तो neutral हो जाएगा !!
तो क्षारीय चीजों मे आप जीरे का पानी पी सकते है पानी मे जीरा डाले बहुत अधिक गर्म करे थोड़ा ठंडा होने पर पिये ! दाल चीनी को ऐसे ही पानी मे डाल कर गर्म करे ठंडा कर पिये !
और एक बहुत अधिक क्षारीय चीज आती है वो है अर्जुन की छाल का काढ़ा 40 -45 रुपए किलो कहीं भी मिल जाता है इसको आप गर्म दूध मे डाल कर पी सकते है ! बहुत जल्दी heart की blockage और high bp कालोस्ट्रोल आदि को ठीक करता है !!
एक और बात आप ध्यान दे इंसान को छोड़ कर कोई जानवर चाय नहीं पीता कुत्ते को पिला कर देखो कभी नहीं पियेगा ! सूघ कर इधर उधर हो जाएगा ! दूध पिलाओ एक दम पियेगा ! कुत्ता ,बिल्ली ,गाय ,चिड़िया जिस मर्जी जानवर को पिला कर देखो कभी नहीं पियेगा !!
और एक बात आपके शरीर के अनुकूल जो चीजे है वो आपके 20 किलो मीटर के दायरे मे ही होंगी ! आपके गर्म इलाके से सैंकड़ों मील दूर ठंडी पहड़ियों मे होने वाली चाय या काफी आपके लिए अनुकूल नहीं है ! वो उनही लोगो के लिए है! आजकल ट्रांसपोटेशन इतना बढ़ गया है कि हमे हर चीज आसानी से मिल जाती है ! वरना शरीर के अनुकूल चीजे प्र्तेक इलाके के आस पास ही पैदा हो पाएँगी !!
तो आप चाय छोड़े अपने अम्लीय पेट और रक्त को क्षारीय चीजों का अधिक से अधिक सेवन कर शरीर स्व्स्थय रखे
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आपने पूरी post पढ़ी बहुत बहुत धन्यवाद !!
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प्राचीन भारत में चिकित्सा एवं सर्जरी प्रौद्योगिकी

* प्लास्टिक सर्जरी की उत्पत्ति ?
कई लोग प्लास्टिक सर्जरी को अपेक्षाकृत एक नई विधा के रूप में मानते हैं। प्लास्टिक सर्जरी की उत्पत्ति की जड़ें भारत से सिंधु नदी सभ्यता से 4000 से अधिक साल से जुड़ी हैं।
 
इस सभ्यता से जुड़े श्लोकों(भजनों) को 3000 और 1000 ई॰पू॰ के बीच संस्कृत भाषा में वेदों के रूप में संकलित किया गया है, जो हिंदू धर्म की सबसे पुरानी पवित्र पुस्तकों में हैं। इस युग को भारतीय इतिहास में वैदिक काल (5000 साल ईसा पूर्व) के रूप में जाना जाता है, जिस अवधि के दौरान चारों वेदों, अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद को संकलित किया गया। सभी चारों वेद श्लोक(भजन), छंद, मंत्र के रूप में संस्कृत भाषा संकलित किए गए हैं। ‘सुश्रुत संहिता’ अथर्ववेद का एक हिस्सा माना जाता है।
‘सुश्रुत संहिता’ (सुश्रुत संग्रह), जो भारतीय चिकित्सा में सर्जरी की प्राचीन परंपरा का वर्णन करता है, को भारतीय चिकित्सा साहित्य के सबसे शानदार रत्नों में से एक के रूप में माना जाता है। इस ग्रंथ में महान प्राचीन सर्जन ‘सुश्रुत’ की शिक्षाओं और अभ्यास का विस्तृत विवरण है, जो आज भी महत्वपूर्ण प्रासंगिक शल्य ज्ञान है।
प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है – “शरीर के किसी हिस्से को ठीक करना।” प्लास्टिक सर्जरी में प्लास्टिक का उपयोग नहीं होता है। सर्जरी के पहले जुड़ा प्लास्टिक ग्रीक शब्द- “प्लास्टिको” से आया है। ग्रीक में “प्लास्टिको” का अर्थ होता है बनाना या तैयार करना। प्लास्टिक सर्जरी में सर्जन शरीर के किसी हिस्से के उत्तकों को लेकर दूसरे हिस्से में जोड़ता है। भारत में सुश्रुत को पहला सर्जन (शल्य चिकित्सक) माना जाता है। आज से करीब 2500 साल पहले सुश्रुत युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनकी नाक खराब हो जाती थी उन्हें ठीक करने का काम करते थे। ‘सुश्रुत’ प्राचीन भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। आयुर्वेद की एक संहिता के सुश्रुतसंहिता के प्रणेता। ये ६ठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में पैदा हुए थे। इनको शल्य क्रिया का पितामह माना जाता है।”
* चिकित्सा एवं सर्जरी:
प्राचीन भारत में ही ऑपरेशन की कला का प्रदर्शन किया गया। जटिल से जटिल ऑपरेशनों को किया गया। इन सभी ऑपरेशनों को एक आश्चर्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए क्यूंकी सर्जरी, प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति (आयुर्वेद) की आठ शाखाओं में से एक है। सर्जरी के क्षेत्र का सबसे प्राचीन ग्रंथ सुश्रुत संहिता (सुश्रुत संग्रह) है।
सुश्रुत जो काशी में रहते थे, कई भारतीय चिकित्सकों जैसे अत्रि और चरक में से एक थे। उन्होनें सबसे पहले मानव शरीर रचना विज्ञान (Human Anatomy) का अध्ययन किया था। सुश्रुत संहिता में, उन्होनें शरीर रचना विज्ञान के अध्ययन को एक मृत शरीर की सहायता से विस्तार के साथ वर्णित किया है। सुश्रुत को नासासंधान/राइनोंप्लासी (नाक की प्लास्टिक सर्जरी) और नेत्र विज्ञान (मोतियाबिंद के निष्कासन) में दक्षता प्राप्त थी। सुश्रुत ने सर्जरी (शल्य चिकित्सा) में आठ प्रकार की शल्य क्रियाएं का वर्णन किया है: छेद्य (छेदन हेतु), भेद्य (भेदन हेतु), लेख्य (अलग करने हेतु), वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए), ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए), अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए), विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए), सीव्य (घाव सिलने के लिए)।
योग शारीरिक और मानसिक पोषण के लिए व्यायाम की एक प्रणाली है। योग का मूल पुरातनता और रहस्य में डूबा हुआ है। वैदिक काल के समय हजारों साल पहले योग के सिद्धांतों और अभ्यास का संघनन हुआ था लेकिन 200 ई॰पू॰ के आसपास योग की सभी बुनियादी बातों को ‘पतंजलि’ द्वारा अपने ग्रंथ “योगसूत्र” में एकत्र किया गया था। पतंजलि ने सर्वप्रथम अनुमान लगाया था कि योग के अभ्यास के माध्यम से शरीर और मन को एक स्वास्थ्यप्रद बनाया जा सकता है। आधुनिक चिकित्सकों का भी मानना है कि उच्च रक्तचाप, अवसाद, भूलने की बीमारी, अम्लता सहित कई बीमारियों को योग के द्वारा नियंत्रण इया जा सकता है। भौतिक चिकित्सा में भी योग के सिद्धांतों को सम्मान और स्वीकृति मिल रही है।
प्राचीन भारत की चिकित्सा व्यवस्था इतनी उन्नत थी की इंग्लैंड की ‘रॉयल सोसाइटी ऑफ सर्जन’ अपने इतिहास में लिखते हैं की “हमने सर्जरी भारत से सीखी है और उसके बाद पूरे यूरोप को हमने ये सर्जरी सिखायी है।” अंग्रेजों के आने से पहले के भारत के सर्जन या वैद्य कितने योग्य थे इसका अनुमान एक घटना से हो जाता है। सन १७८१ में कर्नल कूट ने हैदर अली पर आक्रमण किया और उससे हार गया। हैदर अली ने कर्नल कूट को मारने के बजाय उसकी नाक काट कर उसे भगा दिया. भागते, भटकते कूट बेलगाँव नामक स्थान पर पहुंचा तो एक नाई सर्जन को उस पर दया आ गई। उसने कूट की नई नाक कुछ ही दिनों में बना दी। हैरान हुआ कर्नल कूट ब्रिटिश पार्लियामेंट में गया और उसने सबने अपनी नाक दिखा कर बताया कि मेरी कटी नाक किस प्रकार एक भारतीय सर्जन ने बनाई है। नाक कटने का कोई निशान तक नहीं बचा था। उस समय तक दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी की कोई जानकारी नहीं थी। तब इंग्लॅण्ड के चिकित्सक उसी भारतीय सर्जन के पास आये और उससे शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी सीखी। उसके बाद उन अंग्रेजों के द्वारा यूरोप में यह प्लास्टिक सर्जरी पहुंची।
गर्व से कहो हम भारतीय हैं !

सायन शास्त्र का सम्बन्ध धातु विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान से भी है। वर्तमान काल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने ‘हिन्दू केमेस्ट्री‘ ग्रंथ लिखकर कुछ समय से लुप्त इस शास्त्र को फिर लोगों के सामने लाया। रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि में आवश्यक औषधियों का निर्माण इसके द्वारा होता है।
पूर्व काल में अनेक रसायनज्ञ हुए, उनमें से कुछ की कृतियों निम्नानुसार हैं।

नागार्जुन-रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक
वाग्भट्ट – रसरत्न समुच्चय
गोविंदाचार्य – रसार्णव
यशोधर – रस प्रकाश सुधाकर
रामचन्द्र – रसेन्द्र चिंतामणि
सोमदेव- रसेन्द्र चूड़ामणि
रस रत्न समुच्चय ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-
(१) महारस (२) उपरस (३) सामान्यरस (४) रत्न (५) धातु (६) विष (७) क्षार (८) अम्ल (९) लवण (१०) लौहभस्म।
महारस

 (१) अभ्रं (२) वैक्रान्त (३) भाषिक (४) विमला (५) शिलाजतु (६) सास्यक (७)चपला (८) रसक
उपरस :-

 (१) गंधक (२) गैरिक (३) काशिस (४) सुवरि (५) लालक (६) मन: शिला (७) अंजन (८) कंकुष्ठ
सामान्य रस-

 (१) कोयिला (२) गौरीपाषाण (३) नवसार (४) वराटक (५) अग्निजार (६) लाजवर्त (७) गिरि सिंदूर (८) हिंगुल (९) मुर्दाड श्रंगकम्‌
इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।

अम्ल का भी वर्णन है। द्वावक अम्ल (च्दृथ्ध्ड्ढदद्य ठ्ठड़त्ड्ड) और सर्वद्रावक अम्ल (ठ्ठथ्थ्‌ ड्डत्द्मद्मदृथ्ध्त्दढ़ ठ्ठड़त्ड्ड)
विभिन्न प्रकार के क्षार का वर्णन इन ग्रंथों में मिलता है तथा विभिन्न धातुओं की भस्मों का वर्णन आता है।
प्रयोगशाला- 

रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं- (१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र (७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।
प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।
पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।
पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-

इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।
धातुओं को मारना:- 

विविध धातुओं को उपयोग करने हेतु उसे मारने की विधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगशाला में धातुओं को मारना एक परिचित विधि थी। गंधक का सभी धातुओं को मारने में उपयोग होता था। अत: ग्रंथ में गंधक की तुलना सिंह से की गई तथा धातुओं की हाथी से और कहा गया कि जैसे सिंह हाथी को मारता है उसी प्रकार गंधक सब धातुओं को मारता है।
जस्ते का स्वर्ण रंग में बदलना-हम जानते हैं जस्ता (झ्त्दत्त्‌) शुल्व (तांबे) से तीन बार मिलाकर गरम किया जाए तो पीतल (एद्धठ्ठद्मद्म) धातु बनती है, जो सुनहरी मिश्रधातु है। नागार्जुन कहते हैं-
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥
(रसरत्नाकार-३)
धातुओं की जंगरोधी क्षमता-गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंगरोधन या क्षरण रोधी क्षमता का क्रम से वर्णन किया है। आज भी वही क्रम माना जाता है।
सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥
(रसार्णव-७-८९-१०)
अर्थात्‌ धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।
तांबे से मथुर तुप्ता

(ड़दृद्रद्रड्ढद्ध द्मद्वथ्द्रण्ठ्ठद्यड्ढ) बनाना-
ताम्रदाह जलैर्योगे जायते
तुत्यकं शुभम्‌।
अर्थात्‌ तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो कॉपर सल्फेट प्राप्त होता है।
भस्म:- 

रासायनिक क्रिया द्वारा धातु के हानिकारक गुण दूर कर उन्हें राख में बदलने पर उस धातु की राख को भस्म कहा जाता है। इस प्रकार मुख्य रूप से औषधि में लौह भस्म (क्ष्द्धदृद), सुवर्ण भस्म (क्रदृथ्ड्ड), रजत भस्म (च्त्थ्ध्ड्ढद्ध), ताम्र भस्म (क्दृद्रद्रड्ढद्ध), वंग भस्म (च्र्त्द), सीस भस्म (ख्र्ड्ढठ्ठड्ड) प्रयोग होता है।
वज्रसंधात (ॠड्डठ्ठथ्र्ठ्ठदद्यत्दड्ढ क्दृथ्र्द्रदृद्वदड्ड)-

वराहमिहिर अपनी बृहत्‌ संहिता में कहते हैं-
अष्टो सीसक भागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मया कथितो योगोऽयं विज्ञेयो वज्रसड्घात:॥
अर्थात्‌ एक यौगिक जिसमें आठ भाग शीशा, दो भाग कांसा और एक भाग लोहा हो उसे मय द्वारा बताई विधि का प्रयोग करने पर वह वज्रसङ्घात बन जाएगा।
आसव बनाना-
चरक के अनुसार ९ प्रकार के आसव बनाने का उल्लेख है।
१. धान्यासव – ङदृदृद्यद्म
२. फलासव-क़द्धद्वत्द्यद्म
३. मूलासव-क्रद्धठ्ठत्दद्म ठ्ठदड्ड द्मड्ढड्ढड्डद्म
४. सरासव-ज़्दृदृड्ड
५. पुष्पासव-क़थ्दृध्र्ड्ढद्धद्म
६. पत्रासव-थ्ड्ढठ्ठध्ड्ढद्म
७. काण्डासव-द्मद्यड्ढथ्र्द्म (च्द्यठ्ठड़त्त्द्म)
८. त्वगासव-एठ्ठद्धत्त्द्म
९. शर्करासव-च्द्वढ़ड्ढद्ध
इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गंध, इत्र सुगंधि के सामान आदि का भी विकास हुआ था।
ये सारे प्रयोग मात्र गुरु से सुनकर या शास्त्र पढ़कर नहीं किए गए। ये तो स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके सिद्ध करने के बाद कहे गए हैं। इसकी अभिव्यक्ति करते हुए अनुमानत: १३वीं सदी के रूद्रयामल तंत्र के एक भाग रस कल्प में रस शास्त्री कहता है।
इति सम्पादितो मार्गो द्रुतीनां पातने स्फुट:
साक्षादनुभवैर्दृष्टों न श्रुतो गुरुदर्शित:
लोकानामुपकाराएतत्‌ सर्वें निवेदितम्‌
सर्वेषां चैव लोहानां द्रावणं परिकीर्तितम्‌-
(रसकल्प अ.३)
अर्थात्‌ गुरुवचन सुनकर या किसी शास्त्र को पढ़कर नहीं अपितु अपने हाथ से इन रासायनिक प्रयोगों और क्रियाओं को सिद्धकर मैंने लोक हितार्थ सबके सामने रखा है।
प्राचीन रसायन शास्त्रियों की प्रयोगशीलता का यह एक प्रेरणादायी उदाहरण है।